मनकही – 1


सो नहीं पाई रात भर,सो भी नहीं सकती थी। कोशिश बहुत की, काम का वास्ता देकर भी मन को समझाया…पर समझा नहीं पाई…और शायद इसीलिए सो भी नहीं पाई। कहते हैं कि केश, औरतें और नाखुन अपनी जगह से गिरकर कहीं के नहीं रहते। बस यहीं एक बात जेहन में आ रही थी बार बार। जैसे बच्चों की फटी कॉपियों के पन्नों को चना जोर गरम के लिफाफे बनाने से पहले पढ़ा जाता है, कोई मुझे वैसे ही पढ़े, ये अच्छा नहीं लगता। ना ही वैसे सुनाना जैसे उड़ते मन से ठसाठस ठुंसी सी बस में सस्ते कैसटों के गाने सुने जाते हैं। बहुत दूर के रिश्तेदारों के दुख की तरह कोई भी भोग सकता है पर तुम…इन सबसे अलग… मुझे वैसे सुना जैसे किसी नई भाषा को सुन रहे हो उसको समझने के लिए। ऐसे देखा जैसे ठिठुरते हुए दूर जलती आग को देखा जाता है। कई बार महसूस करती हूं कि कसैला सा अनुभव होता है हमारे रिश्ते को पर रूको, डरो मत। परेशान मत हो। मैं कुछ मीठा तैयार कर रही हूं। हो सकता है बनने में वक्त लग जाए और शायद बनने के बाद भी तुम्हें उसका स्वाद आते आते आए, पर विश्वास करो, यह स्वाद बदल जाएगा। तुमने मुझे पंख दिया है, जिससे मैंने हर हद-बेहद पार किया है। कभी तुमने उन पंखों को कुतरा नहीं, लगाम नहीं लगाई । तुमने वादा किया था कि तुम हमेशा रहोगे और इस वचन को तुम वैसे ही निभा रहे हो जैसे भीष्म ने अपनी प्रतिज्ञा। मैं भी चाहती हूं कि इक वादा करूं …विश्वास देने का। ऐसा विश्वास जैसा कृष्ण पे अर्जुन ने किया था, जैसे सती ने अपने प्रेम पे किया था, जैसे एकलव्य ने अपनी शिक्षा पे किया था, जैसे मीरा ने अपने प्रेम पे किया था। साया बनना आसान नहीं ये जानती हूं मैं, पर असंभव भी नहीं, ये भी सुना है मैंने। मुझे रहना है तुम्हारे साथ। कुछ इस तरह मिलना है जैसे रंग मिलते हों। तुम रहना, मैं तुम्हारी हो ही जाउंगी…..rang

 

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