11.2.14


बिछोह का दर्द जिसने झेला, वहीं जाने उसकी पीड़ा। हर रात अमावस्या की और हर दिन पतझड़ के…सब उजड़ा उजड़ा। शब्दों की चुप्पी सह भी लें पर जब मन की कोई आवाज़ सुनाई ना दे तो वो ज्यादा कष्टदायी होता है। कल एक सेमिनार में तुमको देखा। चुप चुप से, खुद में उलझे पर देखने वाले की मज़ाल नहीं जो तुम्हारे इस दर्द को समझ पाए। मैं थोड़ा बहुत जानती थी इसलिए समझ पाई। रिया ने टोका कि क्या हुआ है इसको? देख कर ऐसा लगता है जैसे एक घना अंधेरा कमरा हो जिसके सारे दरवाज़े खिड़कियों पर ताला लगा हो और चाभी गुम। तुम जैसे कई लोग मिलते हैं…अपने में गुम, जैसे अपने खोल से बाहर ना आने की कसम खा रखी हो। कई बार ये गुमां होता है कि शब्द कमजोर ना दिखा दें …कई बार ये लगता है कि कह कैसे दें और कई बार ये अच्छा लगता है कि खुद को एक आवरण में ही रखा जाए। तुम्हारे साथ क्या है? प्यार का इज़हार नहीं…कोई गिला शिकवा या शिकायत भी नहीं…

अपने अंदर कुछ छिपाना ही है तो मुझे छिपा लो….

 

तेरे चेहरे को देखकर

सोचती हूं अक्सर

कि

इतनी गहराई के साथ

ये चेहरा भला इतना सपाट कैसे?

गुप्त रखने की प्रबल इच्छा देखी है तुझमें

हॉं!

यह प्रमाण है उस अनायास का

स्वीकृति है इक सत्य की

प्रतिभूति है इक तथ्य की

समेट ले़ इन्हें

कि

बिखर कर ये फैल जाएगी…

रोक ले इन्हें

कि

तेरे इश्क की ऑंच

किसी को जला ना दे

तू देखता क्यूं नहीं

कहीं दूर

इक पानी की बूंद

अकेली पड़ी है

जो इस अगन में

जलने को तैयार है…

fire

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