एक थे बबलू मामा…


पापा की बच्ची, दाल तेरी कच्ची, आटा तेरा गीला, करेगी तू लीला…हां, अक्सर मामा जी कुछ ऐसे ही मुझे परेशान किया करते थे। मेरा जवाब भी हाज़िर होता था – ‘हम भी अगर बच्चे होते, नाम हमारा होता ब ब लू’…मामा जी का चेहरा देखने लायक होता था। तेरे दांत तोड़ करके हाथ में दे दूंगा मैं…उनका ये कहना होता था और मेरी हंसी का फव्वारा फूट पड़ता था…

वो बीमार थे…बहुत बीमार। सांसे वैन्टीलेटर के सहारे चल रही थी। कुछ समय पहले हॉस्पीटल में मिलने गई थी। आंखों में जैसे किसी ने हल्दी घोल कर डाल दिया हो। लड़ने वाले मामू उस दिन अलग ही दिखे।

मैं ये बात बहुत पहले से ही जानती थी कि हॉस्पिटल कभी किसी का नहीं होता। एक और बात जो पल्ले पड़ी, वो ये कि आप सबसे जीत सकते हैं पर उस बेबसी से नहीं, जो आपको चारों तरफ से घेर लेता है। बीमारी से जीतना हर किसी के बस की बात नहीं। जो बीमार है, वो भी लड़ता है और साथ में वो तमाम लोग, जो खुद को ऐसे हालात में बेबस महसूस करते हैं।

एक और बात जो दिल और दिमाग ने समझा, वो ये कि अच्छे जीवनसाथी में जिम्मेदारी, समझदारी और ईमानदारी होनी ही चाहिए। अपनी मां को देख रही थी…परेशान थी बहुत। भाई था उसका तो बेचैनी स्वाभाविक है। तभी अचानक मेरा दिल और दिमाग पिताजी की तरफ गया। सब छोड़ कर भाग कर आए। साला था उनका। प्यार बेशक रहा होगा पर पिताजी की खास बात ये थी कि वो सभी के लिए ऐसे ही भाग कर आते हैं। फर्क इतना ही रहता है कि अपने घर के मामलों में मां इस बात को समझती है और दूसरों के मामलों में उनको समझाती है। देख रही थी सब और सोच रही थी कि क्या मां को इस बात का गुमान हुआ होगा कभी कि जो जीवनसाथी उनको मिला, उस जैसे के लिए जाने कितने लोग दुआ मांगते हैं।

मामी मेरी सीधी सादी, दुनिया के बाज़ार में जाकर एक सुई लेना भी उसके लिए मुश्किल काम, फिर यहां तो जवान बेटी और अबोध बेटे को जिम्मा उन पर आन पड़ा था। बड़ा अजीब सा वाकया भी हुआ इस बीच। इधर उधर कुछ गलत सुनने के चक्कर में बात फैल गई कि बबलू मामा गुज़र गए। ऑफिस में थी उस समय। सुनते ही आंखों से आंसुओं की नदियां बहने लगी। फटाफट गाड़ी लेकर हॉस्पीटल की तरफ भागी। रास्ते भर जितना रो सकती थी, रो ली। मन बार बार अतीत के पन्ने पलट रहा था। याद आ रही थी वो सारी मस्ती जो हमने मामू के साथ की थी। वहां जाकर पता चला कि नहीं, मामू हैं। किसी ने गलत सुना और वहीं बात हवा की तरह फैली। डॉक्टर ने कहा कि – ‘वैन्टिलेटर ऑफ नहीं कर सकते क्योंकि उसको ऑफ करते ही पेशेन्ट ऑफ हो जाएगा।‘ हम सब हैरां परेशां। इसका तो कोई अंत भी नहीं। पैसे बनाने के कई तरीकों में से एक और नया तरीका पता चला। काफी मशक्कत के बाद दूसरी जगह उन्हें शिफ्ट किया गया और आज पिताजी के फोन ने सब खत्म कर दिया।

एक बेहद ही अजीब माहौल बन गया था। सब मान कर चल रहे थे कि मामू अब नहीं हैं पर हॉस्पिटल से उनको निकलवा भी नहीं पा रहे थे। हमेशा शांत रहने वाले पिताजी का धैर्य भी डॉक्टर्स के इस अमानवीय व्यवहार से खीज गया था। आज जब सबने मिलकर तथाकथित रुप से इसको डिक्लेयर कर दिया तो मानो आंसु सूख से गए। शायद सब थक गए थे। सबने वास्तविकता को पहले ही स्वीकार कर लिया था। दिमाग ज़रुर चल रहा था कि बच्चों का कैसे होगा? दुनियादारी में बेहद कच्ची मामी जी का क्या होगा?

अताउल्ला खां को पहली बार मैंने मामा जी के रुप में ही जाना था। ‘तुम तो ठहरे परदेसी साथ क्या निभाओगे’ गाना वो पूरी मस्ती के साथ गाते थे। आज भले ही नवजोत सिंह सिद्धु को मैं जानती हूं, पर उस समय मैं सिर्फ अपने मामू को जानती थी, जो हर बात पर एक उम्दा शेर के साथ हाज़िर रहते थे। मामू के साथ साथ सब कुछ गया।

कुछ दिन पहले जब मिली थी तो छेड़ा था उन्हें कि पैसे वैसे दे दिया करो ज़रा, तो उन्होंने कहा था कि अप्रैल के पहले हफ्ते कुछ छोड़ कर जाउंगा…शायद अपनी ज़िद छोड़ कर वो चले ही गए।

तुम्हें शायद मैंने बताया ना हो, पर मैं एक भांजी भी थी…

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