इश्क का ख़याल है तो आम ही पर…


‘बात बस इत्ती सी है कि चाहतों का मज़ा इंतज़ार में नहीं बल्कि हौसलों में है मियां। आगे बढ़ो और उस जुनून को अंजाम दो जिसकी तड़प तुम्हारी नज़रों में नज़र आती है। खुदा को ये हर्गिज़ मंज़ूर नहीं होगा कि तुम यूं ही मुफलिस बने रहो…मुनासिब यही होगा कि मंजिल को जा कर पा लो। ख़िदमत भले ही ना हो तुम्हारी वहां, पर इतनी इनायत तो वो भी करेंगे कि तुम्हारा गोश्त नहीं खायेंगे…‘ हंसते हुए मुर्तज़ा ने इज़हार को समझाने की कोशिश की। अजीब सी बात थी कि नाम इज़हार होते हुए भी इज़हार को अपने प्यार का इज़हार करना नहीं आया। मुर्तज़ा की बात सुनकर इज़हार हंसते हुए चला गया। उसके चेहरे के रंगत से मैं और मुर्तज़ा, हम दोनों ही ये बात समझ गए थे कि इज़हार के दिल की आतिश ऐसे नहीं बुझेगी। मुहब्बत का आगाज़ भले ही कितना भी आसां क्यों ना रहा हो उसकी खातिर…अंजाम मुश्किल था।

‘आज़माईश के आलम में रहना पड़े तो बहुत मुश्किलें आती हैं’…मुर्तज़ा ने मेरी तरफ मुड़ते हुए हंस के कहा। मैं भी मुस्कुरा दी – ‘हां, इज़हार को देख कर तो ऐसा ही लगता है।‘ हम दोनों ही इस बात पर एक साथ काफी जोर से हंसे और आगे बढ़ दिए। जाने मन में क्या चल रहा था कि मैंने उनसे पूछा कि ‘इश्क का ख़याल तो काफी आम है ना मुर्तज़ा?’ मुर्तज़ा ने कहा कि ‘हां… इश्क का ख़याल है तो आम ही पर किसी का अज़ीज़ बनना इतना आम नहीं। अफसोस, अज़ाब, अरमान, अश्क…कई ख़यालों से गुज़रना होता है। कितने भी एहतियात बरतो, भले ही सब निसार कर दो सामने वाले पर…तब भी…कभी बेइज़्ज़ती का एहसास मिलता है तो कभी बेक़रारी हाथ में आती है।‘ मैंने मुर्तज़ा की तरफ देखा और हामी में सर हिलाकर साथ चलने लगी।

एक महीने पहले ही मैं इस इलाक़े में आई थी। मुस्लिमों के बीच में आकर रहने की बात पर कई लोगों ने अपना ऐतराज़ जताया…कुछ ने समझाया…कुछ ने इसे मेरी ज़िंदगी की बहुत बड़ी ग़लती बताई और कुछ लोग मुझसे ऐसे मिले जैसे आख़िरी बार मिल रहे हों। आज पूरा एक महीना गुज़र चुका है। कई लोगों को जान चुकी हूं पर मुर्तज़ा और इज़हार मेरे सबसे काबिल दोस्त हैं यहां। इनसे मिलने के बाद मन ने बहुत बार चाहा कि आते वक़्त जिन जिन लोगों ने मेरे से अपनी फ़िक्र का ज़िक्र किया था, वो यहाँ आ कर इनसे मिले और देखें कि उनका खौफ कितना बेसिर पैर का था। ख़ैर, मैं थोड़ी देर बाद मुर्तज़ा के पास से चली आई। राह में सिर्फ उन्हीं दोनों की बातें जेहन में आ रही थीं। मुर्तज़ा हमेशा ही संभली बातें करते थे जिसमें गहराई होती थी। ज़िंदगी जीने का क़ायदा उन्होंने काफी अच्छे से सीखा था। अपनी बातों पर क़ायम रहते थे वो। ना ही कोई ख़लिश और ना ही कोई टेढ़…उनकी इन्हीं कुछ बातों ने मुझे उनका कायल कर दिया था। ज़ाहिरा तौर पर वो ख़ुदा के बंदे जैसे थे। उनसे बात कर सुकूं मिलता था…पर एक बात थी। वो बहुत ख़ामोश रहते थे। जब बोलते भी थे तो उनका हर एक लफ़्ज़ कहीं दूर से आता दिखता था। महज़ चंद पलों में गर मैं उनकी इस खूबी को जान या समझ पाई थी तो नि:संदेह उनमें कोई बात तो थी ही।

तकरीबन 10 दिन बाद मुझे सुनने को मिला कि इज़हार का निकाह होने जा रहा है। मैं भी जल्दी से तैयार होकर शामिल होने गई। सारे घरवाले आ चुके थे। शोर शराबा था। सब इज़हार को ही छेड़ रहे थे। मैंने भी जाकर मुबारकबाद दी। मुर्तज़ा को देखते हुए मैंने कहा कि इसकी हौसला अफ़ज़ाई आपने ही की थी, नहीं तो जनाब यूं ही रह जाते। सब तरफ ठहाकों का सिलसिला जारी था। मुर्तज़ा की तरफ देखकर मैंने कहा कि ‘अब आप भी बंध ही जाइये किसी के साथ वर्ना इज़हार अब आपको हौसला देगा।‘ मेरी इस बात ने जैसे सबको ग़मदीदा कर दिया…सबकी हंसी एक साथ किसी ने चुरा ली हो जैसे। उसी वक्त इज़हार ने कहा कि ‘जाओ ज़रा मेरी अम्मी को बुला दो।‘ मैं दो पल तो कुछ समझ ही नहीं पाई, फिर उठ कर गई। पीछे देखा तो इज़हार भी आ रहा था। अकेले पाते ही उसने कहा कि आज मुर्तज़ा की यादों को फिर से तुमने छेड़ दिया है। इज़हार ने जो बताया, उसका सार यही था कि मुर्तज़ा को भी प्यार हुआ था हिन्दु लड़की से। फिल्मों की तरह उनको भी इसकी रज़ामंदी नहीं मिली थी। जो बात अलग हुई थी, वो ये कि परिवार की बातों में आकर उन मोहतरमा ने काफी कड़वे शब्दों को बोल दिया था। सब चीज़ को ज़ब्त किया जा सकता है अपने अंदर पर इश्क की कड़वाहट को पचाना आपको खुश्क मिज़ाज़ बना जाता है।

मैं इज़हार की बातों को सोचती रही जबकि इज़हार वहां से जा चुका था।  अपनी सोच से वापस आकर पलटी तो देखा कि मुर्तज़ा खड़े थे। मेरी आंखों में पता नहीं कब आंसु आ गए थे। मुर्तज़ा मुस्कुराते हुए आए और मेरे कंधे को थपथपाते हुए कहने लगे कि ‘वो एक बुरा ख़्वाब था, जो आया था। अब ऐसा नहीं है।‘ मैंने पूछा कि ‘आप अब भी नहीं सो पाते ना पर?’ मुर्तज़ा हंसने लगे। जानती हूं कि वो क़ाबिल हैं पर फिर भी…जाने क्यों मुझे अच्छा नहीं लगा। मज़हब की वजह से शादी नहीं हो पाई, इसका दुख तो था ही, उससे ज्यादा दुखी थी ये सोचकर कि मुर्तज़ा को बेख़ता कितनी ज़िल्लत सहनी पड़ी होगी। मैं भी उनके हाथ को सहलाते हुए बोली कि होता रहता है ऐसा…आगे बढ़ गए आप, ये काबिले तारीफ है। वो भी हंसे और हां में सर हिलाया। बदनसीबी ये नहीं होती कि धर्म के नाम पर रिश्ता टूट जाए…बदनसीबी ये होती है कि धर्म की वजह से एक बेहद ही उम्दा और ज़हीन इंसान मायूस हो जाए। मुर्तज़ा आज भी मुस्कुरा रहे थे। उन्होंने कोई बदनसीबी अपने दरमियां फटकने नहीं दी कभी।

 

मैं वापस अपने कमरे में आ चुकी हूं। तुम्हारी याद आ रही है और साथ ही मुर्तज़ा की बात –

इश्क का ख़याल है तो आम ही पर किसी का अज़ीज़ बनना इतना आम नहीं……

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0 thoughts on “इश्क का ख़याल है तो आम ही पर…

  1. Jisse pyar kero ye jaroori nahi k usse hasil bhi kero ya jise pyaar kero use rishto ka naam do pyaar to pyaar hota he, bahot achha likha he keep it up tumhari jholi me har khushi ho

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