मैंने होठों से लगाई तो, हंगामा हो गया…


ज़िंदगी के हर सवाल का जवाब शादी ही क्यूं है? ज़िंदगी में चाहे जितने भी मुकाम हासिल कर लूँ, सब हमेशा कम या फिर अधूरा क्यूं रह जाता है? क्या मेरा अकेला होना मुझे हमेशा ही समाज के सवालों के जवाब देने पे मजबूर करता रहेगा? क्या मैं कभी इन शक़ और प्रश्नों के सिलसिले से बाहर नहीं आ पाउँगी? क्या अब मुझे बेअसर होकर अपना एक अलग दायरा बना लेना चाहिये?…एक ही सांस में जाने कितने ही सवाल सुहाना ने मुझसे कर लिये। मैं चुपचाप उसकी बातें सुनती ही रही। उसके शांत होने पे मैं बस इतना ही बोल पायी कि कितना कुछ भरा है तेरे अंदर? कहाँ से आया ये सब? उसने मेरी तरफ देख कर कहा कि बांझ नहीं हूँ जो दिमाग में कोई सोच पैदा नहीं हो सकती। शादी नहीं हुई है, बच्चे नहीं मेरे पर दिल और दिमाग उसी माफिक काम करता है जैसे सबका करता है। सब आ कर अपनी सोच मेरे अंदर डाल कर चले जाते हैं। अब जगह नहीं है…भर गया है…मैं खाली करती रहती हूँ पर अब दिल इन बातों को लेने के लिये तैयार नहीं है।

सुहाना को मैं तकरीबन सात सालों से जानती हूँ। शुरु से ही ऐसी थी, ऐसा नहीं था और शायद ये एक बहुत बड़ा कारण था वो सब होने का, जो उसके साथ हो रहा था। एक अकेली औरत को समाज स्वीकार नहीं करता, जो भी लोग ये बात बोलते हैं…वो ग़लत बोलते हैं। सही बात तो ये है कि घबराहट में या लोग क्या सोचेंगे, इस सोच में खुद का परिवार ही इस बात को स्वीकार नहीं करता। सुहाना के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा था। उसका खुद का परिवार उसको लेकर शायद किसी बदलाव के लिए तैयार नहीं हो पा रहा था।

एक महीने पहले ही सुहाना की मां से मिलना हुआ था। कुछ साड़ियां खरीदने मीना बाज़ार आई हुई थीं। रास्ते में टकराहट हुई तो हाल-चाल भी पूछा गया। यूं ही मैंने पूछ डाला कि सुहाना मैडम तो आजकल प्रधानमंत्री से भी ज्यादा व्यस्त हैं। वैसे है कहां वो, दिखती ही नहीं आजकल? बस फिर क्या था…आंटी को जैसे बोलने का बहाना मिल गया हो। उन्होंने कहना शुरु किया कि पता नहीं बेटा, क्या करती है…कैसा काम है…हमें तो समझ में नहीं आता। पूछने पर गोल मटोल सा जवाब। मैं खामोशी से उनके अंदर के डर को सुनती रही। आंटी बहुत समझदार थीं। बहुत सारी बातों को समझती भी थीं पर जवान बेटी का अकेला रहते देख उनका दिमाग भी उनको उनकी तरह नहीं सोचने देता था। मैं उस समय सुहाना की मां से नहीं बल्कि एक डर से मिलती थी।

सुहाना को जहां तक मैंने समझा था, सीधा सादा सा रास्ता था उसका। अकेले रहकर किसी मुकाम तक पहुंच के उसने ये साबित भी किया था कि हमेशा या हर किसी के केस में ये ज़रुरी नहीं कि ज़िंदगी के सारे मतलब शादी या पति में ही छिपे हों। वो बस अपनों के ही आगे हारती थी। कई सुकून उसने हासिल कर लिया था जीवन में पर अपनों की वो निगाहें या उनके सोचने का तरीका उससे उसका आराम कहीं ना कहीं छिनता रहता था। कुछ दिन पहले ही उसने ज़िक्र किया था कि “मां बाप मेरे काम को नहीं समझ पाते हैं तो कैसे उन्हें समझाऊं? काम के लिए बाहर निकलूंगी तो कई दोस्त भी बनेंगे। दोस्त ना भी बने तो जान पहचान तो होगी ही। अपने मार्केटिंग के टारगेट्स को पाने के लिए जितने कॉंटेक्ट्स बने, उतना अच्छा है पर घर वाले मेरे काम को इस तरह देखते हैं जैसे मैं जाने कौन सा घृणित काम कर रही हूं। वो साफ शब्दों में भले ही ना कहें, पर मैं जानती हूं कि मेरे को देखते वक्त कौन सा नज़रिया काम करता है।“

मैं अंदर तक आहत थी उसकी इन बातों से। ये क्या पहना है…कौन से काम से बाहर जाना है…तुम्हें ही इतने काम कैसे मिल जाते हैं…ऐसे कई सवाल थे, जो सुहाना के दिनचर्या का हिस्सा थे। आंटी ने जब मुझे भी ये सब कहा उसके बारे में तो मुझसे रहा नहीं गया। मैंने उन्हें बीच में ही रोक कर कहा कि सब विश्वास पर ही कायम है। उस पर नहीं रहा तो उस परवरिश पर ही विश्वास कीजिए जो आपने उसे दी है। वो सही है पर हमेशा उसको टेढ़ी नज़र से देख कर कहीं आप ही उसको सच में ग़लत ना बना बैठे। सोचिएगा ज़रुर ऑटी…कहकर मैं वहां से निकल गई।

मुझे अचानक ही दिव्या की याद आई। पति ने इतना ज्यादा मारा था कि हॉस्पिटल लेकर जाना पड़ा उसको। प्रभा के पति का अफेयर चल रहा था अपनी ऑफिस की किसी लड़की के साथ। मृदा इसलिए अपने पति को नहीं छोड़ पा रही थी क्योंकि बच्चे हो गए थे। गरिमा इसलिए अपनी शादी शुदा ज़िंदगी से बाहर नहीं आ पा रही थी क्योंकि उसको बाहर की दुनिया के बारे में जानकारी नहीं थी। राखी इसलिए पति के साथ थी क्योंकि हाई सोसाइटी में उसको अपना स्टेटस मेंटेन रखना था। ये सारे नाम गिनवाने का ये मतलब हर्गिज़ नहीं कि मैं सुहाना को ये कह रही थी कि वो शादी कर ले पर हां…ये मकसद ज़रुर है कि हर चीज सबके लिए नहीं होती…शायद शादी और सुहाना का भी यही रिश्ता रहा हो। हालांकि वो बोलती हमेशा थी कि जब भी कोई ऐसा मिलेगा या लगेगा तो ज़रुर करूंगी पर सिर्फ एक ठप्पे के लिए कैसे कर लूं? अगर कर लिया तो फिर तलाकशुदा का ठप्पा भी लग जाएगा। कोई उसकी इन बातों से असहमत भी हो सकता है पर वो किसी की सहमति के लिए ये सब कर भी नहीं रही थी।

आज काफी लंबे समय बाद उसको कोई बात शायद लग गई थी। शायद अपने पिताजी से कोई बात हुई थी। मैंने काफी पूछा भी, पर उसने कुछ नहीं बोला सिवाए इसके कि वक्त का इंतज़ार कर रही हूं…जब मेरे अकेले रहने की वजह से मेरे दोस्त को सड़क छाप ना कहा जाए, जब मेरे काम पे सवाल ना खड़े किए जाए…जब मेरी हर बात पर शक ना किया जाए या फिर शायद उस दिन का इंतज़ार है मुझे, जिस दिन मेरे अपने मुझे इस डर से मुक्त कर एक आम ज़िंदगी का अहसास दें।

मैं उसे देखकर विश्वास से मुस्कुराई। गले मिली और बाहर आ गई। सुहाना जैसी जाने कितनी लड़कियां इन सबसे गुज़र रही होंगी पर अब पंख खुल रहे हैं। सबने उड़ना सीख ही लिया है।

चाहती हूं दिल से कि सब भूल कर सब सिर्फ गाना गाएं – मैंने होठों से लगाई तो…हंगामा हो गया….

birds

 

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