मनकही 4


समुद्र के किनारे कुर्सी पर बैठकर, चाय की चुस्की लेती मेरी वो शाम बहुत हसीन थी। सुनाई गर कुछ दे रहा था तो सिर्फ लहरों का शोर, जो किनारों को छूने की ज़िद लिए बार बार आती और पल भर में ही गायब हो जाती…पर हिम्मत नहीं हारती। कैसी नियति है ये उन लहरों की… ज़िंदगी भर लहरों की इस आज़माइश का सिलसिला चलता ही रहता है। उन फुर्सत के लम्हों में अगर मैंने कुछ देखा और समझा तो वो था उन लहरों का हौसला…

‘Hey, can I join you?’- सामने से आती एक बेहद खूबसूरत लेडी ने मुस्कुरा के पूछा। मैं थोड़ा कॉंशियस हुई पर फिर मुस्कुरा कर कहा – ‘yeah, sure’। वो हंसी और मेरे सामने वाली कुर्सी पर आकर बैठ गई। मैं चाय पीते हुए वापस लहरों को देखने लगी। कुछ सेकेंड्स बाद ही उसने कहा कि hi, I am Elina…and you? मैंने भी एक स्माइल के साथ अपना परिचय करवाया। मैंने उसको चाय के लिए पूछा और उसने हां में जवाब दिया। मैंने उसे चाय बना कर दी और धीरे ही धीरे हमारे बीच में बातें शुरु हुईं।

एलिना 4 महीने पहले ही मुंबई आई थी। देश के साथ साथ विदेश में भी इस बात की हवा तेज़ थी कि मुंबई सबके सपने पूरे करता है। बस एलिना भी इस हवा में बहती हुई मुंबई आ गई थी। कोरियोग्राफर थी, स्टेज शो करती थी और इसी काम को और ज़्यादा बढ़ाने के लिए उसने सपनों की मायानगरी की तरफ रुख किया था। नादां नहीं थी वो, पर इतनी समझदार भी नहीं थी कि ये समझ सके कि मुंबई कुछ देता है तो बहुत कुछ लेता भी है। मुंबई में रहना एलिना के लिए ज़रा मंहगा हो रहा था। वैसे बिना काम के तो राजा भी रंक बन सकता है, फिर ये तो एलिना थी। परेशान होकर थाणे में एक कमरे का मकान देखा और वही रहने लगी। अभी 5 दिन पहले ही गोवा आई थी कुछ दोस्तों के साथ। शायद उसकी ज़िंदगी भी बदलाव चाह रही थी मेरी ज़िंदगी की तरह…

‘your friends?’…मेरे पूछने पर उसने कहा – ‘गूमने गया है’…ओह…तुम्हें हिन्दी आती है, कहकर मैं जोर से हंसी…साथ में वो भी। ‘आं…मुंबई में सीखी है’…not bad कहकर मैं फिर से हंसी।

धीरे धीरे मैंने उसके बारे में बहुत कुछ जान लिया था। सीधी सी थी। जॉर्ज उसका दोस्त था, वैसा ही दोस्त जिसके साथ सपने देखकर भविष्य को वर्तमान में ही संवार लिया जाता है।  तकरीबन 8 सालों से जानते थे वो एक-दूसरे को। वो भी एलिना के साथ मुंबई आ गया था इस सोच के साथ कि साथ में कुछ करेंगे। हालात ठीक ना हो तो कहा सुनी हो ही जाती है, इन दोनों में भी होती थी। प्यार लोभी तो होता ही है। समर्पण चाहता है…पूर्णतया…एलिना समर्पित थी जॉर्ज के प्रति पर प्रोफेशनली लाइफ सही ना होने पर शक, कुंठा, क्रोध जैसे कई शत्रु पैदा हो ही जाते हैं। उन दोनों के दरमियां भी हो गए थे।

तुमारा दोस्त के बारे में बताओ…एलिना की आवाज़ सुन मैं अपने ख़यालों से वापस आई। मैं एक बार फिर से हंसी। मेरा दोस्त…मतलब कि तुम…वो तुम्हारे बारे में पूछ रही थी। मैं हल्की मुस्कुराहट के साथ चुप रही फिर बोली कि वो नहीं आया। बिज़ी है ज़रा काम में। मेरी बात सुनकर एलिना के चेहरे पर एक मायूसी की रेखा आई पर तभी मैंने उसे टोक दिया। नहीं एलिना…वो सच में काम के चक्कर में नहीं आ पाया। एलिना ने मेरे कंधे पर हाथ रख कर कहा कि यहां पर मैंने काम के कई चक्कर देखे हैं…मुझे इसका मतलब पता है…कहकर उसने अपना फोन नंबर दिया और कल फिर से इसी वक्त मिलने की बात कहकर चली गई। मुझे सोचता छोड़कर…

क्या ग़लत कहा था मैंने? तुम सच में व्यस्त ही थे। व्यस्तता ना होती तो भला ऐसा हो सकता था कि तुम मेरी ज़िंदगी में आए अकेलेपन को देख नहीं पाते। अब भला कहां कुछ कहना सुनना होता था हम दोनों में। तुम देश दुनिया के चक्कर में इतने मशगुल थे कि मैं सिर्फ देखकर ही तुम्हारे होने के एहसास को गुनगुना लेती थी। फोन और एसएमएस नहीं करूंगी, ऐसा कहकर मैंने अपना धर्म निभाया और तुम्हारे काम में किसी तरह की दखलअंदाज़ी कम से कम मेरी तरफ से ना हो, इसका ध्यान भी रखा। गोवा आने की भी साथ में ही टिकट थी…पर तुम्हार काम एक बार फिर से सौत की तरह बीच में आ गया। मैं कुछ बदलाव ढूंढ़ रही थी इसलिए इस बार मैं अकेले ही आ गई।

अगले ही दिन मैं फिर से कल वाली ही जगह पर जा बैठी और कुछ ही देर में एलिना भी उसी चिर परिचित मुस्कुराहट के साथ आती दिखी। कैसा रहा दिन? क्या किया? कई गूमने गई? बहुत सारे सवाल थे उसके पास। मैं फिर हंसी…नहीं बस एक नॉवेल पढ़ती रही, कहकर मैंने उसे चाय के लिए पूछा।

ओ…तुमें पड़ना अच्छी लगती है? पूछ कर वो अपने आप में ही बहुत खुश हुई। मैंने पूछा कि क्यों..नहीं लगना चाहिए? इस बार वो हंसी…नई नई…ये अच्ची बात है। मैं तो खुस हुई। दोस्त को पड़ी तुम कबी? मैं हैरां सी होकर उसको देखने लगी। क्या बंदी थी ये? कोई विदेशी इतनी गहराई रख सकता है, ऐसा मेरी सोच में कभी नहीं आया। मैं मुस्कुराई…हां…बहुत पढ़ा है। अभी भी पढ़ती हूं। एलिना ने हम्म्म कहा और मेरी तरफ देखने लगी। तभी पीछे से उसके दोस्तों ने आवाज़ दी और वो मुझे जल्दी से गुडबाय कहकर चली गई। हालांकि उसके बाद एलिना मुझे कभी दिखी नहीं, पर जाने क्यों, उसके साथ वो 2 छोटी मुलाकातें भी काफी लगी…

मैंने पढ़ा तो है ही तुमको। जब तुम खुद में ही उलझ कर कुछ नहीं कहते, तब भी…जब बिना देखे खुद पर तुम्हारी नज़रों को देखती हूं, तब भी…जब अपनी सोच को निचोड़ तुम्हारा चेहरा बनाया, तब भी…असुरक्षा के घेरे में जब तुम बंधे रहते हो, तब भी…दायरों को तोड़ने की कामना में जब तुम छटपटाते हो, तब भी…हमेशा ही…अभी भी…

एलिना चली गई है मुझे पढ़ाने में लगाकर…मैं पढ़ रही हूं तुम्हें…अभी अभी वो पन्ना पढ़ा, जहां लिखा था कि हासिल नहीं किया है मैंने तुम्हें…पाया है…हो सकता है कि इन लहरों की तरह मेरी नियति भी यही हो…पाकर भी ना पाना…पर मन तेरे प्यार के लिबास में सिमट कर ही उसकी खुशबू को सांसों में भरकर ज़िंदा है…

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