रुप


“ज़िंदगी में पिता थोड़ा ऊपर नीचे मिल भी जाए तो चल जाता है, पर मां को तो बहुत ही मजबूत होना चाहिए…सुपर वुमेन जैसा। है ना?” राजेश ने जब मेरी आंखों में देखते हुए अपने सवाल को दागा तो मैं कुछ कह ही नहीं पाई।

राजेश का बेटा देव सिर्फ 6 साल का था। ज़ाहिर सी बात है कि पिता पैसे कमाने बाहर जाता है तो बच्चे का अधिकांश वक्त मां के साथ ही बीतता है। देव का भी समय उसकी मां गीता के साथ ही बीता करता था। नाश्ते में पिज्जा मिलता था देव को…किसी दिन गीता की नींद ना खुली तो देव को स्कूल ना भेजना आसान होता था…देव जितनी देर चाहे, टीवी देख सकता था। गीता कुछ ज़्यादा ही प्यार करती थी शायद अपने बेटे से।

एक शाम राजेश गुस्से में तमतमाया घर वापस आया। ‘हद होती है…कैसी मां हो तुम? अपने बच्चे का ध्यान नहीं रख सकती?’ राजेश गीता की तरफ देखते हुए गुस्से में बोलता चला गया। गीता बिस्तर पर लेटी हुई थी। बिना उठे ही उसने पूछा कि क्या हुआ? राजेश ने बताया कि देव के स्कूल से कॉल आया था। आज वो दोनों पैरों में अलग अलग जूते पहन कर गया है। मैं सुबह 6 बजे ऑफिस के लिए निकल जाता हूं। ये तुम्हारी जिम्मेदारी है कि तुम इन तमाम बातों का ध्यान रखो। गीता ने करवट बदलते हुए कहा कि अबसे ध्यान रखूंगी। राजेश थोड़ी देर गीता के इस केयरलेस बिहेवियर को देखा, फिर वो किचन में कुछ खाने गया। ये बताने की ज़रुरत नहीं कि खाना बनाना भी राजेश के ही हिस्से था।

तुमने कभी उससे शांति से बात की? उसको समझाया कभी? मैंने राजेश की आंखों में देखते हुए पूछा। राजेश ने झूके सर को हां में हिलाया। एक लंबी सांस छोड़कर बताया कि बहुत बार… वैसे तो हर किसी की ज़िंदगी में कई ग़म होते हैं पर किसी ख़ास से मिलने वाला दर्द सबसे ज़्यादा होता है। राजेश की ज़िंदगी में वो दर्द गीता ने दिया था। घर का काम हो या फिर बाहर का, राजेश को सब करना होता था। इसमें कोई बुराई नहीं होती अगर इन सबके बाद भी राजेश को गीता से एक औरत वाला भाव मिला होता तो…अजीब सी बात तब हो जाती है जब दर्द देने वाला का असर दर्द लेने वाले पर से खत्म हो जाता है और तब दर्द देने वाला, दर्द लेने वाला बन जाता है। राजेश की ज़िंदगी से भी शायद दर्द का असर जा रहा था पर गीता पर इसका भी कोई असर नहीं हो रहा था। नारी का ये एक रुप भी होता ही होगा…

क्या सोच रही हो? राजेश ने मेरे हाथ को हिलाते हुए पूछा। मैंने हल्की सी स्माइल दी और कहा कि कुछ खास नहीं। एक पिता को समझने की कोशिश कर रही हूं। क्या तुम्हें डर नहीं लगता कि गीता देव की हर जायज़ नाजायज़ मांगे पूरी करती है तो एक दिन वो पूरी तरह से गीता का ही हो जाएगा। राजेश चुप ही रहा। मैं अपनी मां को सोचने लगी। पिताजी ज़रा गुस्सैल से थे। किसी के भी सामने कुछ भी बोल देने में उन्हें हिचक कभी नहीं हुई पर मां बिल्कुल मां जैसी ही थी। कितनी भी बड़ी ग़लती कर दो, सबके सामने वो शांत ही रहती थी। अकेले में ही वो सही – ग़लत के बीच के फासले को बताती थी और वो समझ भी आता था। मां के जिस रुप को देखकर मैं बड़ी हुई थी, गीता का रुप उससे बिल्कुल भी नहीं मिलता था।

तुम्हें डर नहीं लगता कि एक दिन देव तुम्हारी कुछ भी नहीं सुनेगा?  बच्चों के लिए मां बाप के बीच बिल्कुल भी बंटवारा नहीं होता पर तुम्हारे केस में लगता है कि आने वाले सालों में वो गीता का ज़्यादा और तुम्हारा कम हो जाएगा। हो सकता है कि कल को पलट कर तुम्हें जवाब भी दे दे। फिर क्या करोगे? सह पाओगे? मैं अभी भी शायद पिता को ही समझ रही थी। राजेश ने कहा कि ‘हां…जानता हूं। ऐसा होगा भी। सब जानने के बाद भी मैं कुछ कर नहीं सकता। नाश्ते में पिज्जा देना, जब मन में आए तब स्कूल बंक करवाना, पूरे दिन खुद सोते रहना और बच्चे को टीवी के आगे बैठा देना…मैं ये सब नहीं कर सकता। शायद ये सब ना कर पाने की ही सज़ा मुझे मिलेगी अगर देव मुझसे दूर गया तो।

मैं थोड़ी देर बैठी रही। फिर राजेश के हाथ पर हाथ रखकर उसको सहलाया, थपथपाया और उस शाम की बाचतीच को उसी खामोशी के साथ बंद कर मैं बाहर आ गई। मैं वैसे तो मां नहीं हूं, पर उस भाव को थोड़ा बहुत तो समझ ही पाती हूं। अभी जब 10 दिन तक तुम्हारी तबीयत खराब रही ना, तो कुछ ऐसा सा भाव था कि मिल जाओ तो जाने क्या क्या सेवा कर जाऊं। तुम मुझसे दूर थे और मैं बेबसी के आलम में जी रही थी। मेरे लिए तुम ही बच्चे जैसे हो, जिसके लिए मैं कुछ भी कर गुज़रने की हिम्मत रखती हूं। हमारा बच्चा होता तो शायद मेरे इस भाव को भी पूरा कर देता।

मैं गीता जैसी मां कभी नहीं बनती…पर मेरे पास देव जैसा बच्चा नहीं है…

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