तुम कहीं तो हो…


‘कौन हो तुम?’ ये एक ऐसा सवाल है, जिसे कई बार मैंने खुद से भी पूछा और कई बार लोगों ने भी। लोगों की कोई ग़लती नहीं। मैंने ही तुम्हें उनके सामने अलग अलग रुप में लाया है। कभी प्रेमी, कभी पति तो कभी मेरे बच्चे का बाप…सब हैरां…सब परेशां…आखिर तुम हो कौन?

तुम्हें सबसे पहले मैंने जब सोचना शुरु किया था, तब मेरी उम्र तकरीबन 14-15 साल की रही होगी। प्रेम की घोर विरोधी हुआ करती थी मैं। पिताजी कहते थे कि एक फिगर सोच लो…चेहरा मत लगाओ। आसान हो जाएगा प्रेम को महसूस करना। शुरु में ऐसा करने में मुझे काफी परेशानी आई, पर धीरे धीरे मुझे इसमें मज़ा आने लगा। मैं जो कुछ भी बनाती या रचती, उसमें प्रेम का भाव आता जा रहा था।

ज़िंदगी में उस फिगर के ऊपर सबसे पहला चेहरा मैंने अमित का लगाया था। अमित से मेरी मुलाकात ट्रेन में हुई और हम अच्छे दोस्त बन गए। धीरे धीरे जब वक्त बीता तो लगा कि पिताजी सही ही कहते थे। प्रेम के ‘उस’ फिगर को अब चेहरा मिल गया है। समय बीता और अमित का चेहरा बिगड़ने लगा। वो चेहरा मेरे फिगर पर फिट नहीं हो पाया। मैंने वापस अपनी उस प्रेम की मूरत को बिना चेहरे के पाया। अमित के बाद संजय, प्रवीण जैसे कई चेहरे मिले, जिन्हें मैंने अपनी उस मूरत का चेहरा बनाने की नाकामयाब कोशिश की और वो सब चेहरे टूटते गए। एक चेहरा तो आज ही टूटा। कई बार तो कुछेक से अलग होते हुए लगा कि वो मेरे मूरत के ही चेहरे थे, वो गए तो मेरी मूरत हमेशा के लिए अधूरी रह जाएगी…पर जैसे जैसे वक्त बीता…मुझे सब संपूर्ण सा दिखने लगा। हां…बिना किसी चेहरे के मेरी मूरत मुझे पूरी सी दिख रही है अब।

तुम्हें पता है, तुम जो कोई भी हो…अब एक बहुत पुराना सा रिश्ता बन गया है तुम्हारे साथ। ऐसा लगता है जैसे जाने कबसे तुम्हें जान रही हूं। मेरी खुशी और मेरे दर्द, दोनों ही चीज़ों से अनजाने में तुम्हारा वास्ता हो गया है। ‘तुम्हारा’ सामने ना आना कई बार मुश्किलें खड़ी करता है मेरे लिए, लोगों का कौतुहल मैं शांत नहीं कर पाती पर इसमें एक अच्छी बात हो गई है…तुमको लेकर मेरी जिज्ञासा अब शांत हो गई है। गले से नीचे तक के शरीर का हिस्सा मुझे पता है। गर नहीं पता तो वो चेहरा…पर फिर भी तुम अजनबी नहीं लगते।

मुझे यकीं है…तुम कहीं तो हो…सिर्फ मेरे लिए…

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