मोहब्बत के सिवा…


लातूर में एक औरत पानी की लाइन में लगी हुई मर गई

कहीं किसी किसान ने अपनी परेशानियों से तंग आकर आत्महत्या कर ली

कहीं किसी प्रेमी ने ज़िंदगी से हार मान मौत को गले लगाया

IIT मुंबई के 95% फ्रेशर्स वर्जिन निकले (पढ़ाई पर पूरा ध्यान होगा)

कितने अलग अलग मुद्दे हैं ना आस-पास…सबकी अपनी अपनी परेशानियां, अपनी अपनी खुशी। सबके अलग अलग कारण, सबके अलग अलग तरीके। सबने ज़िंदगी में अपनी अपनी प्राथमिकता चुन रखी है। सब परेशान हैं, वजह अलग अलग है। सोचती हूं तो लगता है कि हम कैसे अपनी ज़िंदगी में प्राथमिकता नहीं चुन पाते? कई लोगों के लिए कुछ ऐसे मुद्दे कितने अहम हो जाते हैं, जिन मुद्दों की तरफ किसी दूसरे का ध्यान भी ना जाता हो या यूं कहिए कि उनके लिए वो मुद्दे अपना अस्तित्व ही ना रखते हों।

दीपा परेशान है कि शेखर, जिससे वो प्यार करती है, वो बार बार उसको छलता है पर वो उसपर भरोसा करना नहीं छोड़ पा रही…उसको प्यार करना नहीं छोड़ पा रही। सोचती हूं तो लगता है कि लातूर में जो महिला पानी की लाइन में लगी हुई मर गई, उसके औरत वाले भाव कैसे होंगे? क्या कभी उसको भी दीपा जैसी मोहब्बत या फिर उस जैसी बेबसी महसूस हुई होगी या फिर वो अपनी पानी की समस्या में ही उलझी रह गई होगी?

एक किसान और एक प्रेमी, दोनों ही आत्महत्या कर लेते हैं। वजह अलग है, पर ज़िंदगी छोड़ने का तरीका एक ही है। किसान को भी दिल का दर्द हुआ होगा, जब वो कर्ज के बोझ में दबा होगा या परिवार की ज़रुरतों को पूरा ना कर पाने का दर्द उसकी कुंठा बन गया होगा। प्रेमी को भी दिल का दर्द हुआ होगा, पर उसके लिए परिवार से ज़्यादा ज़रुरी वो भाव रहा होगा, जिसमें वो उस समय के लिए लिप्त था।

आज के समय में हैरानी का विषय हो सकती है ये बात कि IIT मुंबई के कई फ्रेशर्स वर्जिन हैं, पर सोचती हूं तो लगता है कि उन्होंने अपनी ज़िंदगी की प्राथमिकता पढ़ाई में या अपने उम्र के कामों में चुनी। क्या सच में ये बात इतनी अजूबी है कि मुझे इतना हैरान करे?

कई चीज़ें हैं ज़िंदगी में, जिसकी तरफ हम देखना भी नहीं चाहते, ध्यान जाता है पर मुंह मोड़ लेते हैं। जबरन ऐसे दर्द पाल कर बैठते हैं, जिनका हमारी खुशी से कोई सारोकार नहीं। ये कैसी लिप्सा है भला? हमारी ज़िंदगी उन किसानों, लातूर के उन लोगों जैसी नहीं। एक अच्छी ज़िंदगी हमें मिली है, फिर क्यों हम मीना कुमारी या देवदास बनने में ही ज़िंदगी का मकसद पूरा समझते हैं?

मानती हूं कि सबकी परिस्थितयां अलग होती हैं, इनकी तुलना निराधार है…पर फिर भी…एक अच्छी ज़िंदगी पर सबका हक है और अगर वो हक हमें मिला है तो हम फालतू के दर्द पालकर क्यों उस मिले हक का निरादर करते हैं? सपने सभी देखते हैं। उन्हें पूरा करने का हक सबको नहीं मिलता। वक्त रेत की तरह हाथ की मुट्ठी से फिसल जाता है। फिर अफसोस होता है कि काश, ‘वो’ ना करके ‘ये’ कर लिया होता। कई बार इस अफसोस को करने के ले हम खुद भी नहीं रहते…

सिर्फ एक ही बात समझनी है हमें –

और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा….

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