‘फ़िल्लौरी’ रिव्यू


क्या लगता है आपको? प्यार कब तक इंतज़ार कर सकता है? 10 साल? 20 साल? 30 साल? ग़लत जवाब जनाब, प्यार 98 साल भी इंतज़ार कर सकता है। शशि और रूप के प्यार ने एक दूसरे का 98 सालों तक इंतज़ार किया। अनुष्का की कुछ नया करने की सोच ने और अंसाई लाल के डायरेक्शन ने एक अलग तरह की ही फ़िल्म आज बॉक्स ऑफिस को दी है।

कहानी अलग है, जो 1919 से शुरू होकर 2017 पर पूरी होती है। फ़िल्म का ट्रेलर देख कर लगा था कि कहानी सूरज और महरीन की होगी, पर ऐसा नहीं है। कहानी अनुष्का और दिलजीत की है जो पंजाब के फिल्लौर में रहते थे। इसीलिए इस फ़िल्म कानाम भी ‘फ़िल्लौरी’ है। शशि भूत कैसे बन गई? क्या हुआ ऐसा जो वो 98 सालों से एक पेड़ पर अटकी रह गई, इसके लिए तो फ़िल्म ही देखनी पड़ेगी।

अनुष्का शर्मा बॉलीवुड में नए एक्सपेरिमेंट्स करने के लिए तैयार हैं और ‘फ़िल्लौरी’ से ये बात उन्होंने एक बार फिर साबित कर दी है। एक अलग तरह की ही कहानी है ‘फ़िल्लौरी’। इस फ़िल्म में 2 कहानियाँ एक साथ चलती हैं- कनन- अनु (सूरज शर्मा-मेहरीन पीरज़दा) की और रुपलाल-शशि (दिलजीत दोसांझ-अनुष्का शर्मा) की। हालांकि दोनों कहानियों के समय में 98 सालों का अंतर है। मांगलिक होने पर पहले पेड़ से शादी करनी होती है, इस अंधविश्वास से शुरु कहानी शशि और रुप के मिलन पर खत्म होती है।

कहानी का पहला भाग बहुत हंसाता है। सूरज की एक्टिंग बहुत अच्छी है। कनाडा से लौटे डीजे वाले बाबू ने अपने हाव भाव से बहुत हंसाया है। बात करने का तरीका हो, या हंसने का या फिर शशि से डरने का, सूरज उर्फ कनन जमे हैं। ‘लाइफ़ ऑफ पाई’ में भी सूरज का काम देखा जा चुका है। अनुष्का का काम भी बहुत अच्छा है। फिल्लौरी का रोल हो या भूत का, उन्होंने इंप्रेस किया है। वो भूत के रुप में बहुत ही प्यार लगती हैं, जिससे बच्चे भी प्यार करें। दिलजीत ने भी जान लगा दी है और वो कामयाब भी हुए हैं। ऑंखों में काजल लगा कर, पॉंवों में लड़कियों के दिए पायल बांध कर जब वो गाते हैं, तो कई दिल उनके साथ जुड़ते हैं। मेहरीन का काम भी अच्छा है। वो बहुत सुंदर हैं और फ़िल्म में भी वो बहुत सुंदर लगी हैं।

दूसरा भाग अटकता हुआ सा चलता है। कभी कभीअच्छा लगता है, कभी कभी धीमा लगता है, पर कुल मिलाकर बहुत बोरियत नहीं होती। गाने, एक्टिंग, सिनेमेटोग्राफी- ये सब मिलकर उस बोरियत और धीमी रफ्तार को बैलेंस करते हैं। शशि और रुप का प्यार अच्छा लगता है। जुड़ाव महसूस होता है और शायद इसीलिए आखिरी में ऑंखों में थोड़े ऑंसू भी आते हैं। दोनों की कैमेस्ट्री अच्छी लगी है। फ़िल्म को जलियांवाला बाग से जोड़ा गया है।

गाने बहुत अच्छे हैं। ख़ासकर ‘दम दम’ और ‘साहिबा’। ग्राफिक्स वीएफएक्स इफैक्ट्स भी सही है। जब भी नई चीज़ को बनाने की कोशिश होती है तो उसमें कुछ ख़ामियां रह जाती हैं पर फिर भी अगर ओवर ऑल उस चीज़ से आप खुद को जुड़ा महसूस करें, तो उसमें उसकी सफलता मानी जानी चाहिए। ‘फ़िल्लौरी’ के साथ भी कुछ ऐसा ही है।

 

फ़िल्म के अंत में शशि कनन से कहती है कि वो अनु का हमेशा ध्यान रखे और कनन शशि और रुप को देखकर कहता है कि तो ये होता है ‘हमेशा’। इस हमेशा को समझने के लिए फ़िल्म देखी जा सकती है। अगर आप नए एक्सपेरिमेंट को स्वीकारने के लिए तैयार हैं, तो देखिए इस फ़िल्म को।

इस फ़िल्म को मिलते हैं 3 स्टार्स।

 

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