मनकही – 4


ये जो नज़्म है ना, जो ना लिखी जा रही है और ना ही पढ़ी जा रही है…तेरे नाम सी है शायद। हसरतों के बादल छाते तो हैं…पर जाने क्यों बरसते नहीं…ख़्वाहिशें क्यूं यूं बिखरी सी पड़ी हैं। ये सूनामी है या कोई भयंकर तुफ़ान, जो कुछ भी सिमट नहीं पाता। एक बहाव है या एक बिखराव, समझ नहीं आता। बातों में रंगी पूरी एक चादर है…नहीं…शायद पूरी एक गठरी है। गिठान ऐसी जिसे खोलना मेरे बस की नहीं। तेरी खुशबू भी ऐसी भरी है जो धोने पर भी नहीं जाती। रुह का मिलन ऐसा ही होता होगा ना? तुमने देखा या सुना है क्या ऐसा कभी कि कुछ मिलना, जुदा ना होने के लिए होता है। ये जो तेरे एहसास हैं ना, जो कानों के पीछे गुदगुदी कर जाते हैं, बड़े मीठे से होते हैं। हर लम्हें ये मिठास ज़रुरी है मेरे लिए…नहीं तो कहते हैं कि मुझे कोई बीमारी हो जाएगी।

बड़ी धीमी सी चल रही है मेरी ज़िंदगी…रफ़्तार रोकी हुई है… तू एक सपने जैसा, जो हर रात मेरी नींद के घर आकर दस्तक देता है। धीरे धीरे आना…रास्ते में मेरे बिखरे सपने भी मिल सकते हैं…अनजान हूं मैं इस बात से कि टकराने पर वो तुझे फूल से लगेंगे या कील से। ये जो मेरे ख़्वाब हैं ना…तेरी आहट से गर जाग गए तो सोच क्या होगा? इनके सिवा कुछ और नहीं जो मेरी ज़िंदगी में ठहरता हो। ये मर्द जात का भी तो नहीं है, जो जाए छोड़कर….जाने कबसे मेरे दिलो दिमाग में बना ही हुआ है।

ये भी एक लम्हा ही है, जो तेरे ख़्यालों से होकर गुज़र रहा है। कहते हैं कि सबकी ज़िंदगी की किताब अकेली ही खुलती है…पर मेरी ज़िंदगी की किताब के हर पन्ने पर तेरा नाम भला किसने लिख दिया…

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