भ्रम


बड़ी भारी बरसात है। सब कुछ भीगा….अब भला बारिश का क्या कर सकते हैं? जब बरसना है, तब बरसेगी ही….मन के बारिश की तरह…

बालकनी में जब कॉफी का मग लेकर बैठी, तो बर्फीली सी ठंडी हवा चली, जो मेरे मन को बहा कर अलग अलग समय में ले जाती रही। यह जानते हुए भी कि अतीत व्यतीत होता है, हम उसमें जाना चाहते हैं। कई बार उसे जीने के लिए, तो कई बार बस यूं ही देखने के लिए, मानो जो कुछ बातें उस समय समझ नहीं आई, वो शायद अब आ जाए।

सोचने बैठी तो समझ आया कि ‘साथ’ एक भ्रम है। पर कौन ऐसा है भला जिसे भ्रम पसंद नहीं? समझ तो ये भी आता है कि शायद पूरी दुनिया में कुछ विरले तो ऐसे होंगे ही, जो इस भ्रम से परे किसी के साथ का एहसास पाते हों।

वो क्या चीज़ होती होगी, जो सामने वाले को इतना मजबूत बना देती होगी और आपको बहुत कमज़ोर…पता नहीं…या शायद पता है…वो आपकी ‘उम्मीद’ होती है…शायद…मैं जब तक उम्मीद में रहती हूं, तब तक सामने वाला बहुत मजबूत नज़र आता है। मेरी सारी चाभियॉं उसके पास, जब मन करे, मुझ तक पहुंच सकता है। कहते हैं कि उम्मीद पर दुनिया टिकी है, मान लेती हूं कि सच ही कहते होंगे। पर उस सच का क्या, जो मैं महसूस करती हूं। एक काम करते हैं, ये मान लेना बेहतर होगा कि सबका अलग अलग सच होता है…हॉं, शायद यही मानना ठीक है।

हॉं, तो जब तक आप उम्मीद में रहते हैं, एक आस बंधी रहती है कि सामने वाला आपके पास आएगा या आपको समझेगा। जब तक आपकी आस पर सामने वाला खरा नहीं उतरता, आप दुखी ही रहते हैं। सामने वाला मनमौजी….आप दुखी। एक छोटा सा काम करना होता है इस वक़्त, छोड़ कर देखिए उस उम्मीद को, शायद आपकी पीड़ा कम हो जाए…शायद सामने वाला उतने रौबदार तरीके से ना इतरा पाए।

कौन भला ऐसा, जिसे झूठे बहलावे नहीं पसंद। ‘बेवफा’ को ‘बेख़बर’ मानने में सुकून मिलता हो, तो क्यों नहीं। किसी के चले जाने को स्वीकारना कहॉं राहत देता है भला? हॉं, शायद दर्द का बने रहना ही मरहम है अब…

मैं भी ना, पता नहीं क्या ही सोचे जा रही हूं। क्या पता, मेरी ये सोच भी एक भ्रम ही हो। ये बारिश, ये बालकनी, ये कॉफी का मग, ये बहती हवा और तुम्हारा ख़्याल….शायद बस यही सच है…

3 thoughts on “भ्रम

  1. ‘भ्रम’ भ्रामक है। ‘भ्रम’ छल है। ‘भ्रम’ बहाना हैै।भ्रम मनचाहे और अनचाहे सत्य के बीच का द्वंद्व है।
    मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि सांसारिक जगत में सत्य हमेशा व्यक्तिगत, क्षणिक एवं परिवर्तनशील है और देश,काल, परिस्थिति पर आश्रित है। अध्यात्मिक जगत या तत्वज्ञानियों के तथाकथित शाश्वत सत्य का प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं है मुझे। निंद खुल जाने पर स्वप्न की सच्चाई भ्रामक लग सकती है परन्तु स्वप्न लोक की वह सारी संवेदना भ्रम कैसे हो सकती है जो देश,काल, परिस्थिति विशेष में हमारे मन और शरीर के अनुभव से होकर गुजरी हो। स्वप्न में कुछ था जो अब जागृत अवस्था में नहीं है। होने और नहीं होने के अनुभव समक्ष हैं पर अलग-अलग हैंऔर सत्य वही तो है जो अनुभव पर उतरे। बाकी तो सारी मान्यताएं हैं।
    संभवतः एक देश, काल, परिस्थिति का सत्य दूसरे देश काल परिस्थिति में नियमित: परिवर्तित होगा ही और यह परिवर्तन जब सहज स्वीकार्य नहीं होगा तो पहली स्थिति भ्रामक ही लगेगी। निरन्तर परिवर्तन ही प्राकृतिक नियम है और संभवतः शाश्वत सत्य भी। अपरिवर्तनीय स्थिति या मनोदशा की परिकल्पना ‘भ्रम’ हो सकता है परन्तु अगर अनुभव से गुजरता है तो उसे भी क्षणिक सत्य ही माना जाना चाहिए।

    • सत्य क्षणिक या व्यक्तिगत होता है यह समझते तो सब हैं मगर सबके सामने बोलता कोई नहीं। मेरा सच मेरा वास्तविक सच है या फिर जो मैं चाहता हूँ कि दुनिया मेरे बारे में सोचे। कई बार अहसास होता है कि दुनिया मेरे बारे में जो समझती है वो तो दरअसल मैं हूँ ही नहीं ….. मैं वैसा होना तो चाहता हूँ लेकिन अपनी वास्तविकता या अपना सकता खुद से ज़्यादा किसे पता होती है? फिर भी ये ‘भ्रम’ मैं बना रहने देना चाहता हूँ क्योंकि मेरे लिये अच्छा तो वही है। शायद किसी दिन दुनिया की नज़र में मेरा सच वाकई मेरा सच हो जाए।तब बिना किसी बोझ के जिया जा सकता है।
      मैंने आपकी बात का परिप्रेक्ष्य ज़रूर बदल दिया लेकिन इसके बावज़ूद आपकी बात का वजन और उसकी प्रासंगिकता कम नहीं होती।
      आपने कमाल की बात लिखी सर….सत्य हमेशा व्यक्तिगत, परिवर्तनशील और क्षणिक होता है।

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