भारी लम्हें


मेरी सोच के कुछ कतरें,
बेतरतीब से बिखरे पड़े हैं
उदास आँखों के ख़्वाब भी
कहानी नई, कहते नहीं…
पिछली रात जो बात गुज़री,
वो जा मिली आज सूरज से
दिन क्यों चीखते हैं अब,
रातें क्यों सिसकती भला?
कैसे हैं ये खून के छींटे
ज़िंदगी के होंठ किसने काटे?
क्या सब कल तक की बातें थी
क्या सब कल तक के किस्से थे
ये लम्हें क्यों इतने भारी हैं….
ये लम्हें क्यों इतने भारी हैं…

2 thoughts on “भारी लम्हें

Leave a Reply to सुशील Cancel reply

Your email address will not be published.