सुनो ना, मन बड़ा व्याकुल है…हैरां सा, परेशां सा। मसरूफ़ियत में खुद को उपेक्षित सा महसूस कर रहा है कोई गीत गा दो, शायद मन बहल जाए मन का, या फिर वो यादें याद दिला दो, जिसे वक्त की कमी ने कम कर दिया है। कहना सुनना तो मैं करती रहती हूं इससे, पर ये ज़िद कर बैठा है उसी आवाज़ को सुनने की, जो अब सुनाई नहीं देती। अरे! अभी बसंत का मौसम तो है नहीं जो पीले खेतों में उसे ले जा सकूं। हर सीज़न में हर चीज़ भला कहां मिलती है। तुम्हारा सीजन भी अभी ख़त्म हो गया लगता है। बड़ों ने समझाया कि आम का पेड़ हर साल फल नहीं देता, पर ऐसे में उसको काटता कौन है भला? पानी खाद देकर कुछ देने लायक बनाया जाता है। मन ये समझ नहीं रहा। उसे उसके हिसाब से इच्छाओं का फल हर समय चाहिए। जब टोकती हूं तो कहता है कि मैंने खाद पानी दिया है हमेशा तो मन मुताबिक चीज़ तो मिलनी ही चाहिए। लो कर लो बात, भला ये कहां संभव है? तुम ठहरे कामकाजी इंसान। मन की तरह निठल्ले थोड़े ही ना हो? कहां वक्त मिल पाता होगा इतना? पर ये नासपीटा समझता नहीं। कहती हूं कि खुद को थोड़ा ठंडा भी कर लिया कर, इतनी गर्मी सही बात नहीं, तो जनाब का जवाब आता है कि तुम्हारे जैकेट से मिली गर्मी ने कभी ठंडा होने ही ना दिया। मैं तो कहती हूं कि तुमने ही इसे बिगाड़ा है। अच्छा भला था। मजाल की कभी मेरी बात टाल दे। पर अब ज़रा हिम्मत तो देखो। एक उपाय है वैसे मेरे पास, जैकेट ले लो उससे। बदलते मौसम का हिसाब हो तो अकल ठिकाने भी आए……