धुंधली यादें…


आज मेरे पास ईशा आई थी। अरे वही ईशा, जिसको तुम बिल्कुल पसंद नहीं करते थे। मेरी खुद की भी मुलाक़ात बहुत दिनों बाद हुई उससे। पूछ रही थी तुम्हारे बारे में। जम कर शिकायत की, जैसे कबसे इसी मौके की तलाश में थी कि कोई कान मिल जाये, जहां उसके ये शब्द जा सके। फोटो एल्बम भी दिखाया…पर कई तस्वीर धुंधली हो चुकी थी। अजीब सी बात है ना कि जब फोटो खींचा था तब लगा था कि ये तस्वीरें यादों को धुंधला नहीं होने देंगी पर आज खुद तस्वीरें भी साफ नहीं। वक़्त भी बड़ा अजीब होता है। जो कभी तुम्हारे होने का ऐसा एहसास करवाता है कि पूरी दुनिया तुम्हारे बाद नज़र आती है और कभी किसी वक़्त तुमसे बड़ा अजनबी और कोई भी नज़र नहीं आता। पता है,ऐसे में क्या करती हूँ ….तुम्हें याद है जो पर्फ्यूम तुमने मुझे दिया था, उसको लगा लेती हूँ। जब उसकी खुशबु मेरे जिस्म को महकाती है तो लगता है कि तुमने मुझे छू लिया। एक मिनट रुको, गर्मी सी लग रही है..जैसे दम सा घुट रहा है। सब बंद बंद सा लग रहा है। खोलने दो कुछ हिस्से घर और मन के वर्ना ये घुटन बढ़ती जायेगी। हाँ, अब कुछ राहत सी है। पता है आज क्या हुआ, वैसे तो सब अपने अपने दायरे में होने का दावा करते हैं पर आज मैं ऐसे बहुत लोगों से मिली जो अपने दायरों को तोड़ के बाहर आ चुके हैं. इनमे से कुछ तो बहुत खुश हैं और कुछ बहुत दुखी। ‘हमारा’ दायरा क्या है वैसे ?आज मैं गई थी उस पार्क में। अरे! उसी पार्क में जहां हम छुप के मिला करते थे। जहां तुम्हें मेरे अलावा कुछ नहीं दिखता था। ना फूल, ना घास, ना ही टहलते लोग। जहां हमने हाथों में हाथ डाले अपने आने वाले कल को सोच में सजाया था…पर वो वाला कल अब तक आया क्यों नहीं? मुआं ना आए मेरी बला से, कौन सा मैं उस कल के भरोसे बैठी हूं..है ना??? मेरे लिए तो तुम मेरे आज में शामिल हो। उस हवा में, जिसमें मैं सांस लेती हूं। बहुत दिन हो गए, हाथों में किसी का हाथ नहीं लिया। अब आ जाओ, शाम से रात होने को आई और अब तो चाय के साथ साथ खाना भी ठंडा हो रहा है…..

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