तुम्हें पता है, दिल्ली बड़ा अजीब सा शहर है। बाहर से लगता है जाना पहचाना पर भीतर से बिल्कुल अनजाना। हर शहर का अपना एक मिजाज़ होता है पर सबसे आपका मिजाज़ मेल खाये ये ज़रूरी नहीं। दिल्ली के साथ भी मैं अक्सर यही महसूस करती हूँ। रहती हूँ यहाँ और अक्सर सोचती हूँ कि बस यही तो रह सकती हूँ इसलिए ये तो अच्छा ही है। नहीं होता तो कैसे रह पाती। खुद को समझाने के जाने कितने तरीके मैंने सीख रखे हैं। सही कहते थे बड़े बुजुर्ग कि सीखने में कोई हर्ज नहीं। पता नहीं कब कौन सी सीखी चीज काम आ जाए। बहुत शोर रहा दिन भर। नारायण साईं और दिल्ली चुनाव ने सन्नाटा होने ही नहीं दिया। वैसे भी ये शहर बहुत शोर करता है। पर अच्छा है…कई बार ज़रुरी सा लगता है कि बाहर इतना शोर हो कि अपने अंदर का शोर सुनाई ना दे। पर जाने क्यों आज सन्नाटा खोज रही थी। ठीक वैसा ही, जो तुम्हारे ना होने पर महसूस होता है। कोई मानेगा नहीं, पर सच तो ये है कि हम दोनों की छोटी छोटी तकरारें पार्लियामेंट में होती तकरारों से कम महत्वपूर्ण नहीं। जानती हूं कि कोई भी कह सकता है कि स्वार्थी सोच है पर मैं तो वैसे भी एवैं सी लड़की हूं। पेट खाली हो तो कुछ नहीं सूझता, फिर यहां तो मन खाली है। कोशिश पूरी है कि मैं भी देश दुनिया की बातें करूं, अपनी सीमाओं को तुमसे बढ़ाकर थोड़ा आगे ले जाऊं…तुम्हारा साथ चाहिए इसमें मुझको। प्लीज़, थोड़े आसान हो जाओ, मुझको समझ में आ जाओ…..