एक वक़्त तब था जब ज़िंदगी बाहों के घेरे में सिमट गई थी, सिमटती चली गई थी। एक वक़्त कल आया जब बाहों का घेरा तो रहा पर ज़िंदगी चुपके से झुक कर निकल गई और एक वक़्त अभी आज ही आया है जब ना बाहें थी, ना घेरा और ना ही वह ज़िंदगी जिसकी हर एक सांस हमारी थी। नज़रें घुमा के देखा तो लगा की ज़िंदगी कहीं और किसी दूर कोने में व्यंग से मुस्कुरा रही हो।वक़्त आकर चला गया है या यूं कहूँ की बस छू के चला गया है। वो जगह भी नहीं दिखाई दे रही जहां अपने दस्तखत हों,अपने कदमों के निशान हो…
सच! कहाँ से कहाँ आ गई? यदि यही आना था तो चली क्यूं थी, सपने क्यूं देखे थे? आज आँखें कुछ खोज सी रही हैं। आज मन कहीं कुछ ढूंढ़ रहा है। मन का भाव तो वही है पर तरीका बदल गया है। माथे पर आज शिकन है। हाथों मे एक दबाव ना होकर एक फिसलन है। पैरों की गति धीमी है।आज मेरी सांस फूल गई है और सीने का उतार चढ़ाव हरेक धड़कन की गिनती का हिसाब दे रहा है। नतीजा…ज़िंदगी बस चल रही है…शायद घिसट भर रही है क्यूंकि उसकी बैसाखी कहीं गिर गई है या फिर शायद उसे किसी ने खींच कर एक ओर पटक दिया है…
पर अरे! यह क्या? अचानक क्यूं महसूस हो रहा है कि फाटक खुल रहा है। किसी के कदमों की बहुत धीमी सी आहट धीरे धीरे तेज़ होकर एक मासूम सी दस्तक में बदल गई है। किसी ने आकर माथा छू लिया है और बड़े प्यार से अपने होंठ उसपे रख दिये हैं। अचानक ही ज़िंदगी की आवाज़ सुनाई देती है- ‘देखो! इस तरह अपने को मत मारो। देखती नहीं, कितनी दूर से…कितनी जल्दी जल्दी तुम्हारे लिये दौड़ती सी आई हूँ। आती भी कैसे नहीं? तुम्हारा बुलावा जो था। तुम जानती भी हो कि हर बार, तुम्हारे बुलावे पे जहां भी…जैसे भी तुमने चाहा है, आई हूँ…आज भी…
आज मैं बहुत खुश हूँ पर हाँ…कभी कभी लगता है की कोई अपनी ही सांस शब्दों का सहारा खोजती हुई हथेली पर उतर आती है, तो कोई कोई धड़कन इसलिये हरेक को सुनाई नहीं देती की उसे जहां सुनाई देना है, उन कानों पे शीशे की खिड़की है जिसके आर पार होंठों का हिलना तो देखा जा सकता है पर सुना कुछ भी नहीं जा सकता…
लिखना कुछ और भी था पर जब लिखने की बारी आई तो किसी ने पीछे से झुककर कलम थामते हुए अपनी बड़ी बड़ी आँखों मे प्यार घोलते हुए एक इशारा किया। मैं समझ गई कि यह ज़िंदगी का इशारा है। जब इशारे से ही ज़िंदगी करीब आ गई है तो लिखने की अपेक्षा उस इशारे को समझना ज़्यादा अच्छा है…
पीछे मुड़कर जब मैने ज़िंदगी का चेहरा देखना चाहा तो जो दिखा, वो थे – तुम