भय बिनु होई ना प्रीति…


ये फासलों की बात है या फलसफों का सिलसिला, मैं नहीं जानती। जानती हूँ तो सिर्फ इतना कि अब दिल भी दिमाग की तरह से ही सोचने लगा है। कल की ही बात है,हवा की सरसराहट तेज़ हो चली थी। सारे खिड़की दरवाज़े बहुत तेज़ तेज़ बज रहे थे। 1980 के दशक की फिल्मों की तरह मेरा दिल भी दहला कि जाने क्या होने वाला है? एक तो मैं इस बात से बहुत परेशन रहती हूँ कि मैं बिना डर के जीना कब सीखूँगी। हर बात पे तो दिल ही धड़कता है मेरा। हां, ये तब भी धड़कता था जब मैं तलाश में थी। हर घाटी हर ज़र्रे में ढूँढती थी उस खुशबू को जो अतृप्त इच्छाओं को तृप्त करती है, जो सांसों के ज़रिये रगों में समा के ज़िंदगी जीने का बहाना दे जाती है। इसी तलाश की कोशिश में तुम मिले। तुमको ही ढूंढना है, ऐसा मैंने सोचा नहीं था, बस तुम यूं ही मिल गये। ज़िंदगी में तुम्हारा आना यूं ही ज़रूर था पर उसके बाद मेरी ज़िंदगी यूं ही ना रही। बदल गई…सूखे दरख्त पे कोपलों का आना कैसा होता होगा ? थार में पानी की एक बूंद का मिलना कैसा होगा? मेरी ज़िंदगी में तुम्हारा आना भी वैसा सा ही रहा…उपमा अलंकार जैसा, जिसे मैं चाहती थी कि वो अनुप्रास में बदले…तुम्हारा साथ बार बार मिले। ऐसा भी नहीं कि तुमसे पहले कोई मिला नहीं। बगल से बहुत लोग गुज़रे पर टकराहट किसी से नहीं हुई। क्या ढ़ूंढ़ रही थी मैं? क्या मैं चातक बन गई थी, जो अपनी प्यास सिर्फ स्वाति नक्षत्र की पहली बूंद से ही बुझाता है? मेरे लिए वो बूंद तुम थे। ज़िंदगी गुनगुनाने लगी। राग कौन सा था ये नहीं पता मुझे, पर सुर बहुत सधे थे। तलाश पूरी हो चुकी थी। तुमको पाकर खुद को पाने का एहसास मिला था।

भय बिनु होई ना प्रीति…शायद यही वजह रही होगी कि मेरा मन अक्सर रह रह के सवाल करता था कि क्या ये सच है? सब कुछ मिला है तुमसे…सब कुछ मिलता है तुमसे…प्यार, हिकारत, नोंक – झोंक…और भी बहुत कुछ, जिसे शायद शब्दों में बयां नहीं कर सकती। कई बार तुम्हारे लफ्ज़ कैक्टस की तरह चुभते हैं। काफी चुभन होने के बाद भी तुम्हारा अस्तित्व अपने पूर्व रुप में ही बरकरार रहा। मैं प्यार में थी, आज भी हूं । तुम्हें प्यार करने के सिवा मुझे कोई भी चीज बहुत अच्छे से नहीं आती। जाने क्या करती गर तुमसे प्यार ना करती तो…पर वो कहते हैं ना कि कई बार ज्यादा प्यार दिल से बाहर छलक जाए तो उसको कमजोरी के रूप में भी देखा जा सकता है, मेरे साथ भी वहीं हुआ। हर रुखेपन को सहा है मैंने। हां, सहना ही कहते हैं उसको जो आपको तकलीफ भी दे और चुप रहने पे बेबस भी करे। पिताजी कहते हैं कि कोई भी चीज परमानेंट नहीं होती। फिर भला प्यार कैसे रहे? या फिर शायद प्यार रहे भी तो एहसास कैसे रहे? बड़ा ही मुश्किल होता है अपने साथी को ‘हमेशा’ ये महसूस करवा पाना कि आप हैं उसके लिये। इस मुश्किल काम में तुम भी कई बार चूके और मैं भी। हम दोनों जानते हैं कि हम हैं एक दुसरे के लिए पर फिर भी…गिले शिकवे ना हो तो मज़ा ही क्या? अपने होने का एहसास तब ज्यादा होता है मुझे जब तुम कहते हो कि मेरे लिए अब तुम्हारे पास समय ही नहीं है ना? कुछ कहते कहते रुक जाती हूं। इस शिकायत पे तो मेरा हक था। तुमने कैसे लिया? बहुत बुरे हो तुम। सब कुछ ही तो ले लिया मेरा, यहां तक की मेरी शिकायत भी। क्या समझूं…भय में हो या फिर जाने का इरादा है शिकायतों के बहाने? दिल और दिमाग दोनों कहते हैं कि जाओगे तो नहीं, पर दिल और दिमाग ये भी कहता है कि अब इस चुभन को नहीं लेना। सुन लो…प्यार के लिए भय का होना ज़रुरी है पर अगर सिर्फ वही हावी हो जाए तो दम घुटने की वजह से मौत भी हो जाती है…प्यार की…

तेरा चेहरा क्यों सुन्दर नहीं दिखता, माथे पर क्यों सजी सिलवटें

कर ले साफ इन्हें तू मन से कि यह शिकन अच्छी नहीं लगती

जाना है तो राहें तेरी,पांवों में है कहां कोई बेड़ी

ज़ुबां में यूं ज़हर न बसा कि बात तेरी सच्ची नहीं लगती

क्यों करे यूं आंख मिचौली, मत बन जा तू एक पहेली

होंठ तो मेरे सिल चूके हैं कि निगाह भी मेरी कुछ नहीं कहती

कभी मुहब्बत तो कभी हिकारत, बन गई यह तेरी आदत

साथ में तेरी परछाई भी नहीं कि भीड़ में भी मैं तनहा ही रहती

यूं हलचल मचा अब चूप ना हो,मुझे रातों को जगा अब तू ना सो

तुझसे मिल मैंने सीखा हंसना कि आंख भी मेरी अब नहीं बहती

सुना है सबको कहते मैंने, नहीं बदले कुछ जाने से तेरे

पर कैसे कहूं इस सच को मैं कि ज़िदगी पहले सी भी नहीं रहती…

zindagi

0 thoughts on “भय बिनु होई ना प्रीति…

  1. kya khoob likha hain baut baadiyaa jabardast shabd nahi hain jinse isko bayaan kiya jayein sach mein dil ko choo gayi ek ek line. baut khoobsuraat likha hain

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