पूरे 5 मिनट तक दरवाज़े की घंटी बजती रही थी पर तुम्हारी बेटी से ये पार नहीं लगा कि वो उठ कर दरवाज़ा खोल दे। राजकुमारी जी नाराज़ थी क्यूंकि कल मैंने डांटा था कि झूठ बोल कर किसी बात को छिपाया मत करो। दूसरों से सुन कर ज़्यादा बुरा लगता है। अब तुम पूछोगे कि छिपाया क्या था तो मैं इसके पहले ही तुम्हें बता दूं कि खुद सोचो कि इस उम्र में वो क्या छिपा सकती है? बड़ी हो गई है। उसका एक ऐसा दोस्त बना है जिसके साथ रहने के चक्कर में काम का बहाना बनाती है। जब भी पूछती हूं तो ‘ऐसा कुछ नहीं मम्मा’ कह के गले में अपनी बाहें डाल कर झूल जाती है। उसे क्या सच में ऐसा लगता है कि उसकी मां को कुछ समझ में नहीं आता। मैंने तो उसको खुद ही कहा था कि कोई ना कोई तो होना ही चाहिए ज़िंदगी में…कोई दोस्त, कोई गुरू, कोई परिवार वाला, कोई अनजाना शख्स…जिससे आप कह सके, जिसकी आप सुन सके। मैंने ही समझाया था कि अकेले चलना संभव नहीं। थकान हो सकती है, गिरा जा सकता है। कोई होना चाहिए आपको संभालने वाला। जिसके सामने आप रो सके…अपने दिल का गुबार निकाल सके…जिसके कंधे पर आप सर रख सके। अकेले चल नहीं सकते हम। मैं बताती रही हूं उसको कि कोई होना चाहिए जो तुमसे ये कह सके कि चलो, आगे बढ़ो…डरो मत…रुको मत…मैं हूं संभालने के लिए…सहारा देने के लिए। फिर मेरी बेटी ने मुझसे ही ये पर्दा क्यों किया? ऐसा क्या लगा उसको कि वो मुझसे ही छिपाने लगी। तुम भी तो ऑफिस से बिल्कुल टाइम नहीं निकाल रहे कि कुछ बात कर सकूं। तुम समझ तो रहे हो ना कि आज हमारी बेटी उम्र के उस पड़ाव पर है, जहां भावनाओं को, इच्छाओं को सही दिशा नहीं दिखाई गई तो वो जज़्बात कहीं के नहीं रहते। भटकते हैं, टूटते हैं और फिर बिखर जाते हैं। मैं नहीं चाहती कि मेरी बेटी के साथ ऐसा कुछ हो। चाहती हूं कि उसको उसके पिता जैसा जीवन साथी मिले। मुझे अभी याद है जब तीस साल पहले मैं भटक रही थी और तुमने मुझे सहारा दिया था। हां…मैं भी भटक रही थी। हालांकि मेरे पास भटकने का कोई कारण नहीं था। कारण तो हमारी बेटी के पास भी नहीं हैं पर मुझे शायद मीना कुमारी बनने का सुरुर सवार था। दुखी रहना, सिर्फ मेरे साथ ही सब कुछ गलत होता है ऐसा सोचना…और अपनी इसी सोच में भटकती मैं तुमसे टकरा गई। सोचती हूं तो लगता है कि मैं टकरा के टूट के बिखर भी सकती थी,गिर भी सकती थी, लड़खड़ा भी सकती थी…पर ऐसा कुछ भी हो ना पाया। तुम्हारी बाहों ने इन सारी संभावनाओं पर पूर्ण विराम लगा दिया। तुमने थामा, समेटा मुझे और मैं सिमटती चली गई। पर मुझे डर है कि हमारी बेटी को तुम्हारे जैसा साथी ना मिला तो क्या होगा? कहीं वो बिखर ना जाए। कोशिश तो मैंने हमेशा यही की थी कि वो मुझे एक दोस्त की तरह देखे। हमेशा उसने बताया भी सब है पर इस बार…मुझे मामला सीरियस लग रहा है वर्ना इस बार भी वो बता ही देती। पर ये बेरुखी क्यों आ रही है उसके अंदर? प्यार तो आपको नरम बनाता है…मुस्कान देता है। तुम समय निकालो…पूछो उससे उसके दिल का हाल। बेटियां पिता के ज़्यादा करीब होती हैं। शायद तुमसे कह सके। क्या पता कोई परेशानी आ रही हो उसको इस रिश्ते में। हमें भी तो आई थी…तुम कितने दूर थे…पास आने में तुमने अर्सा लगा दिया था। जिम्मेदारियां कहां कोई वादा करने देती हैं किसी को, पर फिर भी तुमने कर दिया था आने का वादा। वो आवाज़ हर किसी को चाहिए होती है अपनी दुनिया में जिसे सुनकर मन को सुकून मिले। ‘कोई है’ का एहसास इस दुनिया में रहने की हिम्मत को इज़ाफा देता है। मुझे इसकी ज़रुरत कल थी, जबकि पूरी दुनिया थी मेरे आस पास….आज शायद हमारी बेटी को है।
कल उसकी डायरी हाथ लगी तो मैं मां होने के नाते खुद को रोक नहीं पाई और पढ़ने लगी। चाहती थी कि कोई गुत्थी हो उसके मन की तो उसको सुलझा सकूं। मेरी मां भी यही करती थी। मां शायद सबकी ऐसी ही होती है। पढ़कर कुछ कुछ आइडिया तो मिल ही गया। उसे भी तलाश है उस गीत की, जिसे वो गुनगुना सके…उस तस्वीर की जिसे दिल में वो सजा सके। तुम ऑफिस में ही फंसे रहे तो बेटी की भावनाएं फंस सकती हैं। काम को जल्दी पूरा करके घर जल्दी आया करो। उसको सुना करो। मुझे लगता है कि तुम कुछ वैसी ही बातें सुनोगे जो 30 साल पहले सुनी थी….
ज़रा आके तुम देखो न किसका यह साया है
सब कहते हैं दुनिया में मेरी कोई आया है
दिखती हैं अक्सर परछाइयाँ बहुत सी
फिर साथ मेरे कोई क्यूँ नहीं चल पाया है
पिटारा भरा है यहाँ पे सवालों से
मुहब्बत को कोई भला कब समझ पाया है
हैरान सी बैठी हूँ उलझी हुई मैं
दिल ने ये गीत आज कौन सा गाया है
कुछ तो वजह होगी अपने टकराहट की
ज़िन्दगी ने क्यूँ यूँ तुमसे मिलवाया है
sunder abhivyakti