कल रात से ही मन बहुत परेशान और उदास सा था। शायद मौसम बदलने की वजह से फीवर था या मन ना लगने की वजह से कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। वसंत पंचमी आ गई पर मन में हर्षोल्लास नहीं। बेहद व्याकुल सी महसूस कर रही हूं। अकेलापन महसूस हो रहा है। अजीब उधेड़बुन चल रही है।कल रात पहली बार एहसास हुआ कि अकेलापन तभी तक अच्छा होता है जब तक उसको जिया ना जाए। उसके बाद वो अभिशाप सा लगने लगता है। सब कुछ है आस पास…पड़ोसी, रिश्तेदार, पर्सनल और प्रोफेशनल फ्रेंड्स…फिर क्या है जो मुझे परेशान कर रहा है। कुछ इसी सोच में पूरी रात गुज़री…कह सकती हूँ कि इस उलझन भरी सोच की शुरुवात दिन से ही हो गई थी। क्या था जिसने सब कुछ ग़मगीन बना रखा था? हवाओं की सरसराहट में भी सिर्फ तन्हाई ही सुनाई दे रही थी, जैसे उनका साथ भी कोई ना दे रहा हो…सूखे पत्ते भी नहीं। ज़िंदगी में किसी का दखल ना हो तो भले ही दो पल के लिये आज़ादी का एहसास अच्छा लगे पर ज़रा सा वक़्त गुज़रते ही बंधन की ज़रूरत महसूस होने लगती है। आंधियाँ चल रही थी कल रात काफी और मैं पूरी रात यही सोचती रही कि काश कुछ बह जाये इसमें…पर क्या? ये नहीं पता मुझे। कुछ है जो मुझे नहीं चाहिये और कुछ है जो मुझे चाहिये। पर एक मिनट…मैं भला तन्हा कैसे हो सकती हूँ? तुम्हारी याद, तुम्हारी कही हर बात, तुम्हारे ठहाके, तुम्हारी तकरार, तुम्हारा प्यार, तुम्हारी दी उलझन, तुम्हारा दिया सुकून…सब कुछ तो है मेरे पास…फिर भला मैं अकेली कहाँ हूँ? मेरे साथ तो ऐसा भी नहीं कि तुम नहीं तो तुम्हारी जुस्तजू भी नहीं। कभी कभी तो तुम मुझे बहुत भटके हुए से लगते हो क्यूंकि मैं जहां देखती हूँ, तुमको पाती हूँ। मेरी फरियाद नहीं कि तुम मुझे सुन लो और मुझे छू कर अपने होने का एहसास करवाओ। रगों में जो लहू बन के बह रहा है उसमें तुम्हारा ख़्याल घुला हुआ है। तुम्हें पाने की हसरत भी दिल ने नहीं पाल रखी है क्यूंकि जब कुछ खोया ही नहीं तो फिर पाऊँ क्या? पर हां… कुछ ऐसा है जो मुझे समझ नहीं आ रहा पर परेशान कर रहा है। अब तक की तमाम उम्र यही सोचते हुए गुज़री है कि कुछ सोचना ज़रूरी है। कुछ है जो पूरा मुंह फाड़ के मुझे निगल जाना चाहता है। अब रुकना चाहती हूँ…थमना चाहती हूँ। अभी भी नहीं रुकी तो शायद कभी ना रुक पाऊँ। कुछ आदतें इंसान को बदलने का मौका कभी नहीं देती हावी होकर।
तुम चले गये हो तो चले ही जाओ…वापिस आये तो कहीं मैं भी कुछ आदतों की ग़ुलाम ना बन जाऊँ…
यह फासलों की बात है या फलसफों का सिलसिला
क्यूँ कब कहाँ कैसे भला इस सफ़र में तू मिला
आज़माइश है कहीं पे तो कहीं कोई ज़ोर है
जाती नज़रें दूर तलक, दिखता नहीं कोई छोर है
कौन किसको क्यूँ कहे..कहाँ मिले है हर सिला…….
क्या है जीवन जिसे कहा, इस पार से उस पार है
जो कुछ है वो जाएगा, एक यही तो सार है
जी लूं जिससे ज़िन्दगी…कोई ऐसी ख़ुशी पिला……
kaafi achha likhti ho I love you
but i am not your lover.
i hug you
but i am not ur life patner.
I care for you
but i am not from your family.
I am ready to share your pain but i am not in your
blood relation.
They are… Friends !
A True friend scolds like a Dad !
Cares like a Mom !
Irritates like a Sister !
Teases like a Brother !
And finally
Loves you more than a lover….