सब गया। आज खुशवंत सिंह गए तो लगा कि हां, यही तो सच है…धीरे धीरे सब जायेगा। कितनी कोशिश करते हैं ना हम चीज़ों को बांध कर रखने की…सब समेट लेने की ख्वाहिश दिल पाल ही लेता है। मैंने हालांकि ऐसा कोई मुग़ालता पाला नहीं क्योंकि बचपन से ही पिताजी ने कान में अपने ये तीन शब्द डाले हैं –‘nothing is permanent’
पता चला कि आज ‘international happiness day’ है…मतलब खुश रहने का दिन। हॅसी आई सुनकर। फिर लगा कि आजकल जैसे हालात हो गये हैं, उसके लिए एक दिन इसके लिये निर्धारित करना ज़रूरी है, ठीक वैसे ही जैसे प्यार के लिये चौदह फरवरी का दिन बना दिया गया। सब बदल रहा है…सब बदल रहा था…पहले भाव बदले थे, फिर चीज़ों को देखने का नज़रिया, फिर शीशे मे खुद का चेहरा भी बदला और बदला था तुम्हारा रवैया। बेरुखी ने तलाक ले लिया था तुम्हारी जीभ से। अब तुम्हारी जीभ पर कैक्टस नहीं उगते और शायद इसीलिये अब शब्द भी रूखे नहीं निकलते।
वक्त फिर बदला। तुम्हारी चिंताएं अब मेरे हिस्से नहीं रही। मेरी आहों ने अपने घर से सबको निकाल तुम्हें आसरा दिया। ऐसा लगा जैसे तुम्हारे नाम को मेरी जुबां के साथ कील मार कर ठोक दिया गया हो। अब नींदें मेरा साथ नहीं देती, जैसे उम्र ने खुशवंत जी का साथ नहीं दिया। खुशबू को किसी भी ताले में बंद कर देख लो, उसका जो परिणाम होगा, वही मेरी चीखों का भी हुआ। अब मेरे सपने के दरवाज़े पर सिर्फ एक डर दस्तक देता है। इस दुनिया का इश्क नहीं था मेरा। कौन करता है भला ऐसे टूट के प्यार किसी को। अगर एक क्षण के लिये भी तुम्हें ये ख्याल आए कि तुम्हें जो एहसास मुझसे मिला वो किसी और से भी मिल सकता था तो ये तुम्हारा गुमां है। खुशवंत सिंह के जोक्स इसलिये इतने स्पेशल होते थे क्यूंकि वो उनकी कलम से निकलते थे। किसी दूसरे की कलम से निकलते तो उसमें वो बात नि:संदेह नहीं रहती। शायद तुम्हें तुम्हारे ख्याल का जवाब मेरी इस बात ने दे दिया होगा।
सिलसिले बदल गए। अब कागा मेरे मुंडेर पर ना ही बैठता है और ना ही मेरे भीतर कोई आस जगती है। त्वचा की कोई बीमारी हो जाए तो एक हल्की सी खरोंच खून निकाल सकती है…मेरे दिल को भी वैसे ही बीमारी लग गई है। मरने वाले को भी वो तकलीफ नहीं होती होगी जो किसी को किसी रिश्ते से होती है।
वल्लाह, ये कौन सा रोग लग गया है मुझे? अलग अलग किताबों के पन्ने पलटती रहती हूं कि शायद मन की बेचैनियों को कम करने का नुस्खा मिल जाए। जैसे नए साल में सब कोई ना कोई नई चीज़ को करने का प्रण लेते हैं, वैसे ही मैंने भी अंतर्राष्ट्रीय खुशी दिवस पर खुश रहने का सोचा है, पर तुम्हें तो पता है ना कि नये साल पर सोची हुई बातें कितनी होती हैं।
तीसरी कक्षा में पढ़ने वाला बच्चा दसवीं कक्षा की पढ़ाई नहीं समझ सकता। तुम भी मेरी इस तकलीफ को नहीं समझ सकते। बढ़ाओ अपनी चीखों और आहों को, तब जाकर तुम्हें मेरे दर्द का हिसाब समझ में आए…
Ahsaas hai mujhe iss baat kaa
Har ek pal basa hai tumhare dard Ka is dil me
Kuch batain raiki ki Tarah hoti hai jo door se heal kar sakte hain
Mehsoos kar sakte hain……
well said तीसरी कक्षा में पढ़ने वाला बच्चा दसवीं कक्षा की पढ़ाई नहीं समझ सकता।” …… लेकिन यह भी सच हैं कि हम अक्सर खुद को दसवीं कक्षा का और दूसरे को तीसरी कक्षा का विद्यार्थी समझ लेते हैं भले हीं वह पीएचडी क्यों न कर रहा हो …… अपनी चीखें और आहें ज्यादा गूंजती हैं , इसलिए दूसरे के दर्द का हिसाब समझ में नहीं आता …
जाने कैसी लग गई है यार बीमारी मुझे / काटने को दौड़ती है चारदीवारी मुझे……………