‘अब मैं ऐसे नहीं रह सकती, मैं शादी करना चाहती हूँ उससे दीदी’…आरज़ू दौड़ते हुए मेरे पास आई और गले से लिपट के रोते हुए अपने दिल को खोल के रख दिया। मैं अपने साथ साथ उसको संभालती हुई बैठ गई। प्यार से उसके सर पर हाथ फेरा और इस बेचैनी की वजह जानने की कोशिश करने लगी। ‘क्या हुआ? इतनी परेशान क्यूं हो?’ सवाल पूछते हुए मैंने आरज़ू को खुद से थोड़ा अलग किया, जिससे उसका चेहरा देख सकूं। हाँ, बहुत पास की चीज़ें दिखाई नहीं देती…थोड़ी दूरी ज़रूरी होती है। ‘कुछ हुआ नहीं, पर अब लगता है कि अमन को इस रिश्ते का नाम देना ही होगा।’ हम्म्म… तो आखिरकार आरज़ू ने दिल से उपर बुद्धि को जगह दे ही दी। याद आया वो दिन जब वो खुशी से नाचती हुई मेरे पास आई थी कि ‘दी, मैं आज किसी से मिली।‘ सब्ज़ी काटते हुए मेरे हाथ रुक गये क्यूंकि ऐसे तो हम रोज़ किसी ना किसी से मिलते ही हैं, पर अगर उसको किसी को ऐसे बताने की ज़रुरत पड़े तो ज़ाहिर सी बात है कि वो मुलाकात कुछ ख़ास रही होगी। मैं शरारत से उसको देखती हुई पूछने लगी उस अजनबी के बारे में। नाम था अमन। नाम से तो मुझे भी सही ही लगा। बातें जो आरज़ू ने बताई उससे भी सही लगा। मैं भी खुश थी कि चलो, आरज़ू को उसका मनचाहा जीवनसाथी मिल ही गया जो आज के समय में एक बेहद ही मुश्किल काम है।
समय अपनी उड़ान भरता चला गया। एक शाम ऐसे ही बातों बातों में आरज़ू भावुक हो गई और उसी बहते हुए पल में उसने बता दिया कि दीदी, वो शादीशुदा है पर खुश नहीं है। मैं अचंभित हो गई थी, ऐसा नहीं कहूँगी…पर हाँ…मैं अंदर से खाली ज़रूर हो गई थी। आरज़ू को मैंने हमेशा एक बच्चे की तरह ही देखा था। मुझसे 4 साल ही छोटी थी पर मेरे लिये वो एक बच्ची थी। मैं गुस्से में भड़क उठी…धोखा दिया ना उसने तुझे। झूठ बोल कर फंसा ही लिया। आरज़ू ने झट से मेरे मुंह पे अपना हाथ रखा – नहीं दी, मुझे तो कुछ दिनों में ही उसने बता दिया था। मैं अब हैरान हो गई – बता दिया था मतलब? तू जानती थी इस बात को? मतलब तू जानबूझ कर आग के दरिया में तैरना चाहती थी? बावली हो गई है क्या? तुझे पता भी है कि कहाँ किस दलदल में आकर फ़ंसी है। जितना बाहर निकलने की कोशिश करेगी उतना ही धंसती जायेगी…पर तू चिंता मत कर। मैं ऐसा होने नहीं दूंगी। वो रो रही थी। शायद अकेलेपन ने खाया होगा या अमन से कुछ बात हुई होगी …मैं नहीं जानती। बस इतना जानती हूँ कि उसको परेशन देख कर मैं भी बहुत परेशन थी।
बहुत पूछने पे आरज़ू ने बताया कि अमन का मिज़ाज काफी अलग है। चांद की तरह उसका मन भी हर दिन बदलता है और ये चीज़ आरज़ू को अब परेशान करने लगी है। असुरक्षा की भावना ऐसी ही होती है कि आपको सांस लेने में भी परेशानी होने लगे। कभी बहुत प्यार और कभी जमकर तकरार, जैसे किसी मानसिक परेशानी से गुज़र रहा हो।
10 साल हो गए थे इन दोनों के रिश्ते को। मजबूती भी बहुत थी। कह सकते हैं कि एक दूसरे में समाये हुए थे। अमन भी अलग ज़रूर था पर उसका आरज़ू के प्रति प्यार कोई भी अनदेखा नहीं कर सकता था। वो जान थी अमन की। बात सिर्फ आकर भाव पर अटकी थी। बियाहता वो थी पर समाज की नज़रों में सिन्दूर लगने का सुख नहीं उठा पा रही थी और अब ये भाव शायद अपने चरम पर था। अमन का आरज़ू की ज़िंदगी में कानूनी तरीके से आना तय था, पर अग्यात समय आरज़ू के मन को कचोटने लगा था। अल्हड़ और चुहलबाज़ी करने वाली आरज़ू अब अलग सी दिखती थी और आज उसका इस तरह से मेरे गले से लिपट के रोना मुझे अंदर तक कचोट गया।
बहुत सोचते हुए अमन को फोन किया- ‘आरज़ू बहुत परेशान है, क्या करना है?’ सवाल मैंने पूछ तो लिया था पर जवाब जानती थी…बस उसको अमन के मुंह से सुनना बाकी था। काफी देर तक चुप्पी रही। फिर उधर से अमन की आवाज़ आई-‘उसको चले जाना चाहिए दीदी, यही सही रहेगा। मैं आने में अपना वक्त लूंगा पर तब तक इंतज़ार उसके हक में सही नहीं…जाने दीजिए।’ मैं थोड़ी देर चुप रही और उसके बाद हम्म्म्म कह के फोन काट दिया। ये दिल के रिश्ते भी बड़े अजीब होते हैं। दिल को हमेशा ये ख्याल रहता है कि अंत क्या है पर फिर भी उसी के ख्याल में रहते हैं। अगर दर्द किसी की ज़िंदगी को शायराना बनाता है तो आरज़ू ने उस दर्द को पा लिया था। लैला मजनू सी मोहब्बत होती नहीं शायद अब…आज़माइश बहुत है बीच में। अमन और आरज़ू एक दूसरे को सुन लेते तो शायद मुझे ये सब सुनने की ज़रुरत नहीं होती।
मैंने जैसा कहा था, वैसा किया। आरज़ू की शादी तय कर दी है एक अच्छे लड़के से।
अब मैं बहुत खुश हूं पर तुम तो जानते हो ना कि कुछ खुशियां उदास होती हैं।