जीती हुई बाजी…


चर्रर्रर्र की आवाज़ के साथ कार आ कर रुकी। थोड़ी देर में कार का दरवाज़ा खुला और एक बेहद हसीन पैर बाहर निकला। लगा कि अब बस कोई अप्सरा बाहर आने वाली है पर जब वो मोहतरमा बाहर आईं तो जैसे किसी ने मूंह पे पानी डाल कर सपने से जगाया हो मुझे। एक भारी भरकम सी आंटी थीं वो। पास आ कर उन्होंने एक मुस्कान मेरी तरफ उछाल कर फेंकी। मैंने भी ‘वेलकम मैम’ कह के स्वागत किया। मैं उनको लेकर अंदर जाने लगी और साथ ही मेरा दिमाग भी किसी सोच की गुफा के अंदर जाने लगा।

एक बहुत बड़ा इवेंट होने वाला था। काफी जोर शोर से तैयारी भी चल रही थी। सुना था कि बहुत दूर दूर से बहुत बड़े बड़े लोग आने वाले थे।मैं भी उसका हिस्सा थी इसलिये बहुत ज़्यादा उत्साहित थी। सुबह से ही कई काम मेरे हिस्से आ गये थे, जिसमें से ये भी एक काम था जिसको मैंने अभी अभी अंजाम दिया था। हां…अभी अभी जिसे मैंने आंटी महसूस किया, वो इस इवेंट की मुख्य अतिथि थीं।

तुम्हें मैं ना जाने कितने दिनों से कह रही थी कि छुट्टी ले लो ऑफीस से, मुझे भी अच्छा लगेगा पर जाने क्यूं जो तुम मुझे मेरी जीती हुई बाजी से लगते थे, अब हमेशा दिल को हरा बैठते हो। सब आए हैं…सब ही आए हैं…बस तुम नहीं हो। मत आओ…आते तो शायद मैं जली भूनी ही बैठी रहती तुम्हारी निगाहों को लेकर क्योंकि यहां बहुत सारे चेहरे ऐसे हैं, जिन्हें निहारने में आंखों को सुकून मिले।

काफी शोर शराबे के साथ इवेंट पूरा हुआ। धीरे धीरे सब जाने लगे। मैं अपने केबिन में कुछ पेपर्स ठीक कर रही थी कि तभी आवाज़ आई – ‘सुनो…ये सेफ्टीपिन लगा दोगी क्या?’ मैंने पीछे पलट कर देखा, वही आंटी थीं। मैंने मुस्कुरा के कहा कि क्यूं नहीं। उनके हाथ से पिन लेकर मैंने उनकी साड़ी में लगाया। वो वही टिक के बैठ गईं। अपने आप ही कहने लगीं कि आज मैं बहुत थक गई…जैसे खुद से ही बातें कर रही थीं। कुर्सी पर पीछे सर टिका कर उन्होंने आँखें बंद कर ली। मैं अपना काम करते करते बीच बीच में उन्हें देखने लगी। 40 के आस पास उनकी उम्र होगी। मोटापा छोड़ दिया जाये तो आँखें, हाथ-पैर, मुस्कुराहट…सब कुछ वैसा था जो किसी को भी पसंद आ जाये।

‘कबसे काम कर रही हो यहाँ पे?’

12 साल से…उन्हें देखते हुए मुस्कुरा के मैंने कहा।

‘घर में कौन कौन है?’ फिर से सवाल दागा उन्होंने।

मैं, मेरे पति, मेरे सास ससुर और मेरा 10 साल का बेटा।

हम्म्म्म…अच्छा है…भरा पूरा परिवार है।

जी…आपके घर में? आप यही दिल्ली में रहती हैं?

हाँ…यही रहती हूँ…अकेली

क्यूं?…नहीं चाहते हुए भी मेरे मुंह से जाने कैसे ये निकल गया।

सब था…तुम्हारी तरह…पर अब कुछ नहीं…मोटी हूँ ना…

मैं नहीं जानती कि जाने वो किस दर्द से गुज़र रही थी, या क्या सोच के उन्होंने ऐसा कहा, बस इतना समझ में आया कि उनकी भी कभी कोई जीती हुई बाजी हुआ करती थी, जिसे आज शायद वो हार चुकी हैं।

तकलीफ उनकी थी पर जाने क्यूं मुझे तुम पर गुस्सा आया….

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