दिल की इस हरारत को, खुद से अब मिटाऊं कैसे?
मसीहा ही जब करे हलाल, खुद को मैं बचाऊं कैसे?
बिखरा पड़ा है ज़िक्र तेरा, इधर भी है उधर भी है
अफसानों में इन सबको, अपने मैं भर पाऊँ कैसे?
क्यूं ज़िरह कि रिश्ता क्या है, हम दोनों के बीच में
दुनिया से परे है जो, लफ्ज़ों में उसे बताऊं कैसे?
बेबसी का होता आलम, जब तू होता दूर है
मंजूर है जिस्मों की दूरी, दिल की दूरी मिटाऊं कैसे?
ज़ाहिर नहीं कुछ भी यहां, हर बात यहां इक राज़ है
इश्क़-मुश्क छिपते नहीं, आखिर ये बात छिपाऊं कैसे?
सच है, ज़िन्दगी में बहुत से सवालात के जवाब नहीं मिलते…