कुछ दुश्मनी ऐसी होती है, जो बिना बात के ही शुरू हो जातीहै। हां…दिव्या के साथ ऐसा ही हुआ था। दिव्या से मेरी मुलाकात सुबह पार्क में होती थी। पहले स्माइल, फिर हाय हैलो, फिर कॉफी और अब बात एक दूसरे के घर तक आने जाने की थी। हमदोनों कम ही समय में काफी पास आ गए थे।
हमेशा की तरह आज भी जब पार्क में गई तो दिव्या काफी देर बाद दिखी। दो चार दिन से वैसे भी उसके चेहरे का हाल उसकी तकलीफ को बयां कर रहा था, पर तकलीफ क्या थी, मैं इससे अनजान थी। आज मैंने उसको रोका और एक तरफ बेंच पर ले जाकर परेशानी की वजह पूछने लगी। उसने बताया कि काफी नए लोगों ने उसके ऑफिस में ज्वॉइन किया है। मैंने कहा कि अच्छा है ना, अब तुम लोगों का वर्कलोड भी कम हो जाएगा। उसने कहा कि रहने दे…तू समझ नहीं रही। मैं उसको ध्यान से देखते हुए बोली कि हाँ मैं सच में नहीं समझ रही। क्या हो गया? उसने जो बताना शुरू किया, उन सबको भले ही मैंने पर्सनली ना महसूस किया हो, पर देखा बहुत है।
रेखा नाम की एक लड़की ने ज्वॉइन किया था उसका ऑफीस। देखने में वैसी ही थी जैसी अधिकतर बॉसेज़ को पसंद आती हैं। दिव्या एक प्रोजेक्ट पर काफी दिनों से काम कर रही थी और बात कुछ ऐसी थी कि जो भी उस प्रोजेक्ट को करता, उसका वेतन बढ़ना पक्का था। दिव्या भी प्यारी थी, पर शायद उसके बॉस रोहित की नज़र में रेखा की बात ही कुछ अलग सी थी। ‘ये मर्द ऐसे क्यूं होते हैं?’- दिव्या ने जब मुझसे ये पूछा तो मैं समझ गई की दिव्या के हाथ से वो प्रॉजेक्ट जा चुका है। मैंने हंस के बात टालनी चाही, तू छोड़ ना…ये गया है तो दूसरा इससे अच्छा आ जायेगा। तब उसने एकदम अलग पर सही सी बात कही कि अगर उस वक़्त कोई रेखा से भी ज़्यादा अच्छी आ गई तो? सवाल सही था पर शायद मेरे को कोई उत्तर समझ नहीं आया। मैंने फिर भी कहा कि सब बॉस रोहित जैसे नहीं होते, क्या पता बॉस भी बदल जाये। वो मुस्कुराई और हमने पार्क से घर की तरफ रुख किया।
घर आते तक मेरा दिमाग सिर्फ इसी कथा पुराण में फंसा हुआ था। जाने कितनी दिव्या होंगी, जो रेखा जैसी से परेशान रहती होंगी। दिव्या ने बताया था कि रेखा को सारे हुनर पता थे जिससे बॉस को रिझाया जा सके। पहले शायद सिर्फ मर्द और स्त्री की लड़ाई होती थी पर आज स्त्रियों की खुद से ही लड़ाई इतनी ज्यादा है कि दूसरे की उसमें जगह नहीं। पुरुषों की नाभी से नीचे की भूख और महिलाओं की भौतिक चीज़ों की भूख ने जाने कितनी दिव्याओं को मारा खाया है। क्या है अंत इसका? पुरूष हर स्त्री को अपनी ज़िंदगी में चाहिए पर क्यों कभी कभी हम उसके किसी भी वजूद को स्वीकार कर लेते हैं? पुरूषों की भी इस कमज़ोरी को देखकर अफसोस ही होता है कि पद आपको इतना ही भूखा बना देता है तो लानत है इस उन्नति पर। ये सब है क्या आखिर?
दिव्या अब क्या करेगी ये मैं नहीं जानती। हो सकता है अपने बॉस के जाने का इंतज़ार करे, रेखा के जाने का या फिर नई नौकरी के आने का।
सुनो, मैं तो रेखा कभी नहीं बनी, तुम रोहित बने क्या???