कुछ 60 के आस पास की उम्र होगी उनकी। इत्तेफाक़ की मुलाकात थी मेरी उनसे। मिलने से पहले सुना था और यही कयास लगाती थी कि पद और उम्र के हिसाब से वो वैसे ही होंगे जैसे मैं महसूस कर रही हूँ या मेरी जगह कोई दूसरा भी जैसा महसूस करता। मिलने से पहले मेल पर बातें हुई थी मेरी उनसे। काफी ज़हीन सोच के मालिक लगे थे वो मुझे। मैं अक्सर उनसे बेतुका सा सवाल पूछ बैठती थी कि क्या आप वैसे ही हैं जैसे दिखते या महसूस होते हैं? जवाब में बस मुझे उनकी एक स्माइल मिला करती थी। ये बात अलग है कि बाद में उन्होंने इसका जवाब देना शुरू कर दिया था कि हाँ, मैं बिल्कुल ऐसा ही हूँ। समय के साथ साथ हमारी जान पहचान भी बढ़ने लगी। पत्नी किसी बीमारी की वजह से जा चुकी थी उन्हें अकेला छोड़ कर। बेटा था जो शादी कर के दूसरे देश में जा बसा था। उससे रिश्ते बहुत करीब के थे उनके पर जगह की दूरी की वजह से एक दूसरे को देखने और छुने का सुख प्राप्त नहीं था। अक्सर मुझे लगता था कि कितना मुश्किल होता होगा ना किसी के लिये भी अकेले रहना और बात जब एक मर्द की हो तो शायद और भी। हो सकता है कि ये सोच गलत हो क्योंकि अकेलापन सबके लिए एक जैसा होता है पर फिर भी मेरी सोच यही थी। जब भी मैं उनसे इस बात को डिस्कस करती वो हंसने लगते थे। उनकी हंसी के पीछे के दर्द को मैं पता नहीं क्यू ज़बर्दस्ती देखने कि कोशिश करती। ज़िंदगी में कई कोशिशें गलत होती हैं शायद। मेरी भी थी…
एक दिन ऐसे ही शाम को मैं किसी काम की वजह से उनसे मिलने गई। काफी खुल कर बातें हुई। चूंकी वो मुझसे बहुत बड़े थे इसलिये अक्सर बहुत नपे तुले शब्द उनके मुंह से निकलते थे। उस शाम शायद उनके ज़ेहन में ये ख़्याल आया था कि उम्र से भले ही मैं उनसे बहुत छोटी हूँ पर मेरा दिमाग या मेरे समझने की सीमा उनके आस-पास की ही है और इसीलिए उन्होंने उस दिन हम दोनों के उम्र के बीच के अंतर से परे जाकर बातें की। रिश्ता दोस्ती सा ही लगा था।
धीरे धीरे मिलने का सिलसिला बढ़ता गया। ओह सॉरी, मैं बताना भूल गई कि हम दोनों एक प्रोजेक्ट पे साथ काम करने लगे थे।
मैंने महसूस किया था कि वो काफी समय से थोड़े बदले बदले से थे। एक दिन ऐसे ही मैं फिर उनके पास गई। जनाब काफी दुखी थे। अब हमारे बीच में दोस्तों जैसी बातें होने लगी थी इसलिये मैं उनसे पूछने लगी कि क्या हुआ है? क्यूं आप इतने परेशान नज़र आ रहे हैं? उन्होंने झुंझला के कहा कि कुछ नहीं। मैं बार बार पूछने लगी। मुझे ऐसा लगा कि शायद आज अकेलापन उनको बहुत खा रहा है। उन्होंने अचानक से कह दिया कि मैं तुमको लेकर सोचने लगा हूं। क्या??? मैं एकदम चुप, हैरां, परेशां…ये आप क्या कह रहे हैं। आप जानते हैं कि मेरे पिताजी आपकी उम्र के हैं। मैंने कभी आपको अपने गाइड से ज़्यादा लिया ही नहीं। वो मुझे देखने लगे। ‘क्यूं, उम्र की सीमा किसी भी सोच को रोक या तोड़ सकती है क्या?’ बात उनकी सही थी। पिताजी वाला उदाहरण शायद ग़लत दे दिया था मैंने। खुद को संभालते हुए मैंने कहा कि हर्गिज़ नहीं…हो सकता है कि ज़िंदगी में मेरी सीमा टूट जाये कभी। हो सकता है कि कभी मैं इसी उम्र से टकरा जाऊँ, पर वो आप नहीं हैं। वो चुप हो गये। चिड़चिड़े हो गये थे वो। समय बीतने लगा। कल तक जो बातें करके हंसते थे, अब उनको मेरी कोई बात नहीं सुहाती थी। मैंने भी मान लिया था कि कभी कभी किसी को सब समझ में आता है पर कभी कभी कोई दिन ना समझने वाला भी होता है। अब ये सारे दिन उनके लिये भी ना समझने वाले थें।
एक दिन मैंने अपनी सारी फाइल्स वहां से उठा ली ये कहते हुए कि जानती हूं कि अब मुझे आपका साथ नहीं मिलेगा इस प्रोजेक्ट में इसलिये जा रही हूँ। उन्होंने भी मुझे एक बार भी आवाज़ नहीं दी। पता नहीं ये उम्र की ज़िद थी या पद की…
मैं बाहर आ चुकी हूँ उनके रूम से, उनके घर से, उनकी सीमा से और शायद उनकी सोच से भी…मैंने कोशिश की थी उनकी कमी को बांटने की पर कुछ कमियों को वैसा ही छोड़ देना चाहिये वर्ना वो एक और कमी को पैदा कर देती हैं…
मैं अभी के अभी तुम्हारे पास आना चाहती हूँ….