मनकही 2


वर्णमाला के सारे अक्षर जानती हूँ…पढ़ी लिखी हूँ …बहुत सारे शब्द भी हैं मेरे पास…पर आज जाने क्यूं सब कम पड़ गया। हाँ, मैं कुछ बोल ही नहीं पाई। लब थरथरा के रह गए। सवाल था कि तुम चाहती क्या हो?  आज से पहले कभी बहुत सोचा नहीं शायद। घर, गाड़ी, पैसे, दोस्त, परिवार…इन चाहतों से परे की चाहत…क्या थी वो?

मेरी सारी हैरानियाँ उस वक़्त हैरत में पड़ गई  जब मैं मूक बन गई। मैं? सच में? मैं गूंगी हो गई थी? क्यूं पर? इतना मुश्किल या भारी सवाल तो था नहीं ना? फिर भला ऐसा क्या हो गया था मुझे? कितना सोच के गई थी कि इस दफा ऐसी किसी सोच में नहीं पड़ना है मुझे, पर सब बेकार। अभी अभी जिस बेज़ुबानी की गुलामी की थी मैंने, वो मुझे पसंद नहीं आ रही थी। खुद में ही जैसे घुली जा रही थी मैं।

गई थी आज नेहा मैम से मिलने। उनसे मिलना मुझे बहुत पसंद था। अक्सर परेशानियों में वो समझती भी वैसे ही थीं, जैसे मुझे समझ में आ सके। बातों ही बातों में मुझको फंसाना उनको बखूबी आता था। मुझे जंचता भी था उनका साथ। लगता था जैसे खुद से ही मिल रही हूं। अजीब सी ही है ज़िंदगी। हम कौन सी कश्ती पे सवार हैं, इसका अंदाज़ा कई बार नहीं लगता। कश्ती बहती रहती है और हमें लगता है कि सब सही है क्यूंकि बहाव है। कहाँ भला दिल और दिमाग दिशा के बारे में सोच पाता है। मैं भी कुछ ऐसी ही धारा के साथ बह रही थी और खुश सी थी। ख़ामोश ही रहती थी ज़्यादा पर आज मैम के इस सवाल ने मुझे जता दिया था कि ख़ामोशियों की भी आवाज़ होती है।

आज जाने क्यूं चाहत चुप और भावनायें नाराज़ हैं। दिमाग जाने कहाँ इधर-उधर दौड़ रहा है। क्यूं रिश्तों को हम शर्तों पे जोड़ते हैं? वैसे अजीब सी बात है…देखो तो लगता है कि यहाँ अधूरी हर बात है, पर सोचो तो लगता है कि किसे किससे क्या कहना है भला? अपने अपने हिस्से की ख़ामोशी जीते हैं सभी, लफ़्ज़ों में दर्द है भला कब बयां होता? शायद ये कायनात जुड़ी ही है इस शर्त पर कि जुड़ कर हर चीज़ को यहां बिखरना है। कुछ टुकड़ों में जीती हूं…मैं भी…आप भी…काश कि ज़िंदगी को यूं किश्तों में ना जीना होता। जाने कितने सवाल हैं जिसका जवाब ढ़ूंढ़ने की कोशिश करती हूं और बड़ी मशक्कत से जब ढूंढ़ पाती हूं तो ज़िंदगी सवाल बदल देती है और एक बार फिर से मैं मशगूल हो जाती हूं जवाब को पाने में।

आज ज़िंदगी के रुप में मैम ने सवाल पूछा था।खाली रास्तों पर चल रही हूं और मैम के सवाल का जवाब ढूंढ़ रही हूं…क्या चाहती हूं मैं? नहीं पता शायद या शायद मैं समझ नहीं पा रही…पर कहीं ना कहीं जाने क्यूं इस प्रश्न का उत्तर मुझे ‘तुम’ लग रहे हो…

हां…तुम्हें चाहती हूं मैं…

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