शाम से ही जाने क्यूं मौसम बिगड़ा हुआ है…बिल्कुल मन के मिज़ाज की तरह। घर की सफाई को अगर छोड़ दिया जाये तो भला कहाँ ऐसा होता है कि हम कहीं कोने कोने को साफ करें। बस…यही कोशिश करने चली थी। मन के किसी कोने में बरसों पुरानी कुछ इधर उधर की बातों ने मैल जमा लिया था, जिसे मैं साफ कर देना चाह रही थी। काफी हद तक कर भी लिया था पर तुमने फिर से आज ज़िक्र छेड़ा तो लगा कि शायद मैं पूरी तरफ से सफाई नहीं कर पाई थी।
जाने कैसी बयार में बहते हैं हम सब कि बस बहते ही चले जाते हैं। एक अलग सी दुनिया बनती चली जाती है, जिसमें किसी की जगह नहीं रहती। मैंने भी ऐसी ही एक दुनिया बना ली थी। मैं खुद ही पहरेदार थी उस दुनिया की पर मेरी पहरेदारी मनमौजी सी थी ज़रा। जिसको मन करता अंदर आने की इजाज़त दे डालती और जो पसंद नहीं आता वो कभी जान ही नहीं पता कि उस दुनिया के अंदर क्या है?अमित, प्रवीण, संजय, मीना, दीपा…ऐसे कुछ लोग थे जिन्हें आज तक मेरी दुनिया देखने का मौका नहीं मिला। निहाल भी उन्हीं लोगों में से एक था, जिस पर मेरी पहरेदारी ने अपना जोर दिखाया था। मुझे उससे क्या दिक्कत थी, ये मुझे आज तक कभी समझ नहीं आया…बस इतना समझ में आता था कि वो जो चाहेगा मुझे उससे उल्टा करना है। मैं कर भी कुछ ऐसा ही रही थी।
वक़्त बीतने के बाद आप अक्सर चीज़ों को समझते हैं या समझने की कोशिश करते हैं। मैं भी अक्सर समझने की कोशिश करती थी कि मुझे निहाल से इतनी आपत्ती क्यूं थी? जो समझ में आया वो ये था कि ऑफिस में हमने साथ ही काम किया। हम दोनों का एरिया अलग अलग था पर फिर भी आमना सामना होता ही रहता था। जाने कैसे गुरूर में वो रहता था कि सब उसको उसके आगे बौने ही लगते थे। जानती हूँ कि कॉर्पोरेट वर्ल्ड की अपनी कुछ खूबियाँ होती हैं। उन खूबियों से आपको भली भांती परिचित होना ही चाहिये। मैं भी होते होते हो ही गई थी। निहाल की अपनी जो भी पारिवारिक समस्या रही हो, वो इन खूबियों से वाक़िफ़ भी था और इसमें रचा बसा भी था। काम ना आने के बाद भी अपनी ऐसी जगह बनाना जैसे बहुत काम आता है, ये अपने आप में माहिरी है और निहाल था इसमें माहिर। शायद वही वो समय था जब मैंने निहाल को अपनी दुनिया में आने से रोकने का सोच लिया था। ऐसा नहीं कि मेरे साथ उसने कुछ गलत किया था, पर जाने क्यूं मैं कभी भी खुद को उसके साथ फिट नहीं कर पाई। अक्सर ये टीस मेरे अंदर उठती थी कि किसी के भी गलत तरीकों से मेरी गति क्यों रुकती है।
एक दिन शाम को मैं घर लौट रही थी। ऑफिस के ख्यालों में गुम मैंने सामने तेज़ स्पीड से आती कार को नहीं देखा और पहुंच गई सीधे हॉस्पिटल। अजीब सी बात ये थी कि मुझे डॉक्टर के पास लेकर जाने वाला कोई और नहीं निहाल ही था। बाद में धीरे धीरे वक्त बीता। कड़वाहट भी कम हुई। मेरी शादी के 20 साल हो गए हैं और मैं अपने घर बार के साथ काफी व्यस्त भी रहती हूं पर आज सुबह जब तुमने उसके आने की खबर सुनाई तो मैं वापस उस कॉर्पोरेट की दुनिया में गई जहां मेरा सामना निहाल से हुआ था। एक्सिडेंट के बाद जब ठीक होकर मैं वापस घर आई तो मैंने महसूस भी किया था मेरे प्रति निहाल के बदले भाव को पर सूई के बराबर की जगह भी मेरी पहरेदारी ने उसको नहीं दी। जाने क्यों मैं कभी कुछ चीज़ों से बाहर नहीं आ पाई। इतने सालों बाद जब ज़िक्र छिड़ा तो लगा कि मैं उसे कभी माफ नहीं कर पाई…अपने जेहन से साफ नहीं कर पाई…
मुझे समझ में नहीं आता…तुम्हें आता है क्या कि कुछ गुनाह रिश्तों से बड़े कैसे बनते हैं???