वो…


वो दुखी थी…बहुत ही ज़्यादा। बाहर से देखने पे ज़ख्म नज़र नहीं आता था…ठीक वैसे ही जैसे हवा नज़र नहीं आती। ज़ख्मी तो थी ही और ये दर्द तब और भी ज़्यादा बढ़ जाता जब कोई उसके ज़ख्मों के टाँके उधेर देता। हाँ…वक़्त बेवक़्त लोग ऐसा किया करते थे। मुझे याद है उससे हुई मेरी पिछली मुलाक़ात…

उलझी उलझी सी रहती थी वो। जिस दिन मैं उससे मिली, उस दिन मैंने बैठ के बड़े प्यार से उसके बाल संवारे थे। मन में ये ख़याल जाने कितनी बार आता जाता रहा कि काश इसकी किस्मत को भी मैं इसके केश की तरह संवार सकूँ। पर कहां हो पाता है ऐसा? इंसान बस लड़ता ही रह जाता है और एक दिन यूं ही बस थक के रुक जाता है या गिर जाता है।

जिस दिन मैं उससे मिली थी उसी दिन समझ गई थी कि अब इसकी ज़िंदगी में किसी दूसरे का आना मुश्किल है क्योंकि उसकी आंखों में ‘उसका’ चेहरा साफ दिखाई देता था। गुस्सा भी किया था मैंने उसके ऊपर कि भला ऐसा हाल कौन करता है अपना? पता नहीं दर्द उसका कितना सगा था कि कभी उसको अकेला छोड़ा ही नहीं। अकेला छोड़ने की बात तो दूर, शायद दर्द ने उसकी ज़िंदगी में अपना घर बना लिया था।

एक बात जो बहुत पास से देखी, वो ये थी कि दहलीज़ पर बैठकर इंतज़ार मुश्किल होता है। चित्रों में ये बहुत ही सुंदर दिखता है कि एक खूबसूरत औरत शाम के समय देहरी पर बैठकर किसी का इंतज़ार कर रही हो पर वास्तविकता इसके ठीक विपरीत होती है। ज़िंदगी ने उसे भर भर के अपने दुखों की सौगात दे रखी थी। प्यार ने उसे ऐसा कर दिया था या फिर विरह ने…मैं नहीं समझ पाई। सदियां बीत जाती हैं पर इस दर्द का इलाज कोई कभी नहीं कर पाता।

एक दिन ऐसे ही शाम को जब वो कुछ बुन रही थी तो मैंने उसको कहा कि मेरे साथ चल। उसने कुछ जवाब नहीं दिया। छेड़ा मैंने उसे कि तेरी चुप्पी को तेरी हामी मान रही हूं मैं। काम करते हुए उसका हाथ रुका। उसने अपनी नज़रें उठाईं, मुझे देखा और वापस काम में लग गई। जाने क्या था उन आंखों में कि मैं उससे दुबारा कुछ पूछ ही नहीं पाई। उसकी यादों का पानी इसने ऐसे गटका था कि उसके अंदर और किसी चीज़ की प्यास ही नहीं जगी। ये जो इंतज़ार के आलम होते हैं ना, उसको ना तो हम भला कह सकते हैं और ना ही बुरा। इसमें तड़प भी है और इसका अपना अलग मज़ा भी है।

वो अकेली थी क्योंकि वो चला गया था। उसने कहा तो था कि वो है हमेशा उसके लिए…आएगा…पर किए गए वादों को निभाना कहां सबके बूते की बात होती है ? बीज जाने  कबका पेड़ बन चुका था और अब तो वो दरख़्त सूखने भी लगा था पर फल कभी नहीं लगा उस पर।

कुछ लोगों की…कुछ चीज़ों की…नियति अलग होती है, जिसे मैं चाहकर भी अजीब नहीं कह सकती…शायद अपमान करने जैसा हो। सबने मुझे इस कोशिश के लिए समझाया कि वक्त गुज़र जाएगा तो वो ठीक हो जाएगी पर मैं उन सबको समझा नहीं पाई कि वक्त भला कब गुज़रता है? हम और तुम गुज़र जाते हैं…हां…सब गुज़र जाता है बस इक वक्त को छोड़कर…

ज़िंदगी से उसकी कोई रंजिश नहीं थी पर शायद उसे अब ज़िंदगी का साथ सुहा भी नहीं रहा था। ये कैसी ख़लिश थी, बता पाना मुश्किल है…मैं समझा नहीं पाई उसको…शायद समझा भी नहीं सकती थी…क्या पता मेरा ना समझा पाना या उसका ना समझ पाना ही उसके लिए सही था। वो नहीं आया…पता नहीं क्यूं? नतीजा ये हुआ कि इसकी ज़िंदगी सिमटती चली गई। सिमटी हुई चीज़ें छोटी हो जाती हैं जो अक्सर किसी को नहीं दिखती। इसका इरादा भी यही हो शायद। हां…शायद…जाने क्यूं कुछ भी उसके बारे में पूरे यकीं से नहीं कह सकती क्योंकि सच तो ये है कि इतने दिन के साथ ने भी मुझे कुछ समझने का मौका नहीं दिया। जाने कितनी बार हम दोनों उन बातों का ज़िक्र किया करते थे, जो हमारे दरमियां थी ही नहीं। मैं नहीं जान सकती या मैं नहीं जानती कि क्या हो सकता था या क्या नहीं हुआ…पर हां…इतना ख़याल हमेशा ही आया कि क्या होना चाहिए।

मैं आ चुकी हूं वापस…या यूं कहूं कि उसके साथ जगह की दूरी हो चुकी है मेरी। अब तुम ये मत कहना कि तुम मेरी बात समझ नहीं पा रहे। नाम बदनामी दे देता है कई बार। ‘उसका’ और ‘इसका’ में भी बातों को समझा करो। बस एक बात हमेशा ध्यान रखना…मैं ये ‘सर्वनाम’ हम दोनों के ऊपर नहीं चाहती…

rahul-lost_love

 

 

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