‘मैं’


मैं उड़ना चाहती हूं। सब कुछ नहीं तो बहुत कुछ पाना चाहती हूं। बाहें फैला रखी हैं मैंने…जितना समा जाए, उन सबको समेटना चाहती हूं। हां, घबराहट बहुत होती है…डर भी लगता है। कभी लड़खड़ाती हूं तो कभी गिरती हूं…पर रुकती कभी नहीं मैं। गति कम और ज़्यादा होती रहती है पर ठहरी कभी नहीं मैं। बहुत बार ऐसा भी हुआ जब लगा कि प्यार हो गया है मुझे और वो एक महज़ छलावा निकला पर एक बार फिर से प्यार करना चाहती हूं मैं। सांसे थमी थमी सी लगती हैं इस फ़रेब की दुनिया में…मैं खुली हवा में सांस लेना चाहती हूं। हो सकता है कि सहते सहते मैं किसी को पत्थर लगने लगूं पर दर्द होता है मुझे, ये मैं जताना चाहती हूं। क्यों हमेशा भरम में ही रहूं कि सब कुछ ठीक ही तो है…मैं सच का सामना कर खुद संभलना चाहती हूं।

नहीं करना चाहती खुद को इतना मशगुल कि अपनी सहेलियों के लिए वक्त ना मिले…चाहती हूं कि बचपन का एहसास साथ ही रहे। नहीं चाहती मैं कि मुझे उस नज़र से देखा जाए जैसे एहसानों की पोटली मैंने संभाल रखी है और नहीं चाहती मैं ऐसी ज़िंदगी जहां हमेशा अनचाहेपन का अहसास मिले। नहीं चाहती खुद पर दरिंदों सी नज़र और नहीं चाहती मैं खुद पर कोई दया दृष्टि। चाहती हूं तो बस इतना कि स्वीकारी जाऊं मैं…अपनाई जाऊं…ना कि झेली जाऊं। मुझे अच्छा नहीं लगता जब कोई मुझे घर के अंदर बंद कर मेरी आज़ादी छीन लेता है…मुझे अच्छा नहीं लगता जब ऑफिस में मेरा प्रमोशन काम की जगह ‘काम की भावना’ द्वारा निर्धारित होता है। मुझे नहीं अच्छा लगता ये सोचना कि लोग क्या सोचेंगे और मुझे ये भी अच्छा नहीं लगता कि किसी की सोच में मेरा ख़्याल क्यों नहीं।

मैं हंसना चाहती हूं…मैं रोना चाहती हूं…मैं शर्माना चाहती हूं…मैं रुठना चाहती हूं…मैं मनाना भी चाहती हूं। मैं किसी की बाहों में सिमट जाना चाहती हूं…मैं किसी बाहों के घेरे से भाग जाना चाहती हूं। किसी के लिए मरने का जी करता है तो किसी के लिए जीने का। मैं खेलना कूदना चाहती हूं…मैं नाचना गाना चाहती हूं। मैं सीखना चाहती हूं। सारी कुंठाओं से खुद को मुक्त करना चाहती हूं…अपने वजूद को महसूस करना चाहती हूं।

मैं सांस लेना चाहती हूं…मैं…हां मैं…मैं एक नारी हूं…

और ये सब…

मेरी ज़रुरत भी है

मेरी इच्छा भी है

मेरी मर्ज़ी भी है

मेरा हक़ भी है…

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