सोचती हूं उन बुनकरों को, जो सिलाई का काम करते हैं। उन जुलाहों को, जो बुनते हैं। कितने चमत्कारी से होते होंगे ना वो लोग। एक भी गांठ नहीं दिखती उनकी सिलाई में या उनकी बुनाई में। कहां से सीखा होगा उन्होंने ये हुनर? मैंने तो बहुत ढूंढी ऐसी पाठशाला पर मिली ही नहीं। नहीं…ऐसा नहीं कि मुझे बुनकर बन कर कुछ बुनना है। रुको…शायद बुनना है…हां…रिश्ता बुनना है मुझे…तुम्हारे साथ…
अभी अभी की मुलाकात है। मैं जानती नहीं तुम्हें। जानते तो तुम भी नहीं पर मुझे जानना तुम्हारे लिए आसान रहेगा। बोलती बहुत हूं ना। मन में रखने वाला हिसाब किताब नहीं है मेरा। मेरी सोच गर मुझ तक ही रह जाए तो फिर उनके पैदा होने का अर्थ क्या रह जाएगा भला? बस…हां बस…यही कारण है कि मैं बोलती हूं। फिर तुम ठहरे मौनधारी बाबा…संवाद हो भी तो कैसे? संवादों से याद आया…आजकल तुम मेरे संवादों में…यादों में…वादों में…और भी पता नहीं किस किस में आ जाते हो। क्या इरादा है? सब जगह तुम्हारा ही हिस्सा होगा क्या? मुझे भी थोड़ी जगह दो ना। कहीं भी दे दो…यादों में या वादों में या संवादों में…कहीं भी। मुझे सब चलेगा…सब कुछ ही…
ओफ्फो…बात बुनकर की हो रही थी…हां…मैं सीखना चाहती हूं…बुनाई सीखना चाहती हूं…रिश्ता बुनना है मुझे तुम्हारे साथ और वो भी ऐसा जिसमें गांठ ना दिखे। देखो, मैं मानती हूं…गांठ के बिना दो चीजें जुड़ नहीं पाएंगी पर फिर भी…दिखे ना या महसूस ना हो, ऐसी कोशिश तो कर ही सकती हूं ना।
रिश्तों को रंगों जैसा बना देते हैं चलो, जिसमें कोई ढूंढ़ ही ना पाए हमें। ऐसे मिलें कि अलग होने की सारी संभावनाएं खत्म हो जाएं। तुम्हें पता है ना कि रंगों के मिलने के बाद उनके अलग होने की कोई संभावना बचती नहीं है। मैं भी बस सेम टू सेम ऐसा ही चाहती हूं। और हां…कोई शर्त नहीं है किसी बात की। जबर्दस्ती का सौदा कई मामलों में आप भले ही कर लें पर रिश्तों के साथ नहीं करते…कर ही नहीं सकते।
तुम्हें याद है वो रात…जब हम तुम साथ में जा रहे थे…एक मोड़ के बाद हमारे रास्ते अलग हो गए थे। तुम अपने घर चले गए और मैं अपने। तुमने मुझे समझाया था कि कुछ रिश्ते वास्तविकता के धरातल पर बने होते हैं और कुछ हम ग़फ़लत में बना लेते हैं। हां…मैंने वो बात समझी थी। उस बात के इशारे को समझा था जो मुझे मिश्री घोल कर तुमने कहे थे। सफ़र किसे कहते हैं? हमसफ़र किसे कहते हैं? जहां तक कदम चले वो सफ़र, और वहां तक जो साथ चले वो हमसफर। सीधी सादी सी परिभाषा बना दी है मैंने। तो चलो ना…जहां तक साथ चल सकते हैं वहां तक के सफर के हमसफर बनते हैं। क्या सोच रहे हो? समाज क्या सोचेगा? हाहाहाहा…तुम बताओ, समाज ने आज तक क्या सोचा है? हां…अजीब लग सकता है कि तुम 70 साल के और मैं 54 साल की…इस उम्र में ये सब…तो क्या फर्क पड़ता है? क्या एक सीमा बाद या एक रेखा बाद भावों को जकड़ा जा सकता है क्या? सब छोड़ के आना नहीं है तो उसका डर भी नहीं…
तुम दर्द में हो या डर में…या शायद दोनों में ही? जो खो गया उसका दर्द या आने वाला कहीं खो ना जाए उसका डर? या अब रिश्तों की कोई परिभाषा ही नहीं तुम्हारे लिए? रुको…सिर्फ एक रात का रिश्ता ही तो समझ में नहीं आता ना तुम्हें? उम्र का लिहाज़ करो ज़रा इस ख़्याल के पैदा होने से पहले। तुम कहते हो ना कि मैं सपने की दुनिया में हूं…हां हूं…ग़फ़लत ही सही…खुशफहमी ही सही…कुछ तो है। तुम्हारे पास क्या है? मत कहना ‘मेरे पास मां है’।
चलो छोड़ो…अब ज़्यादा नहीं कहूंगी। बस इतना ध्यान रखो, खुशियां जहां से भी मिले, ले लेनी चाहिए। सही-ग़लत की परिभाषा किसी को नहीं पता…समाज के नियम भी किसी को नहीं पता…आने वाले कल का भी किसी को नहीं पता। अगर कुछ पता है तो वो आज का पता है…अभी का पता है…
मुझे तुम्हारे और तुम्हें मेरे बारे में पता है…
Hey Shweta. I saw the link of your blog on FB and could not stop myself from reading your posts. Beautifully written, words straight from heart, and convey the message in such touching manner. I look forward to reading more posts. keep writing beautifully.