ज़रा बोल्ड है…


शादी के 25 साल हो चुके हैं। कई उतार चढ़ाव के बाद भी तुम आज भी उतने ही अजीज हो, जितने उस पल थे, जब पहली बार मैं तुम्हारे बाहों के घेरे में घिरी थी। उम्र नहीं है पर आज एक बार फिर उसी रोमांस को महसूस करना चाहती हूं।

मेधा और मैं एक साथ ही ऑफिस जाते थे। रास्ते में तुम भी मिल जाते थे क्योंकि तुम्हारा टाइम और तुम्हारी बस भी हमारे टाइम और हमारी बस से मैच करती थी। पता नहीं मेधा ने क्या देखा था तुम्हारी नज़रों में और उसने मुझे तुम्हारे नाम से छेड़ना शुरु कर दिया था। शायद उसकी वजह वो शाम थी, जब बारिश हो रही थी और मेधा मेरे साथ नहीं आई थी। मैं कितना डरी हुई थी ना क्यूंकि ऑफीस से आने में काफी देर हो चुकी थी। बारिश भी काफी तेज़ थी। आस पास हर दिन कुछ कुछ ना हादसा होता ही रहता था जिसने मन में एक डर को पैदा कर दिया था। बस भी जाने उस दिन आने में क्यूं इतना वक़्त ले रही थी। फिल्मों की तरह ही तुम भी उसी दिन लेट हो गए थे। शायद हमको मिलना ही था। बस…फिर क्या…उस दिन तुमको देखकर मेरी जान में जान आई। जानती नहीं थी मैं तुम्हें, पर हर दिन एक दूसरे को देखने का रिश्ता ज़रुर था तुम्हारे साथ। हम मिले…तुमने मेरी आंखों में डर को देख ही लिया था इसीलिए जो तुम हमेशा हमसे 2 स्टॉप पहले ही उतर जाते थे, उस दिन मेरे उतरने के बाद भी बस से नहीं उतरे।

अगले ही दिन मेधा ने हम दोनों की नज़रों को पकड़ लिया था। बस फिर क्या था…छेड़खानी का सिलसिला शुरु हो गया और हर दिन तुम्हारा नाम सुनते सुनते मुझे तुम पसंद आ ही गए। सबने मिल कर हमारी शादी भी करवा दी पर मैं तुमसे कभी कुछ कह नहीं पाई। शायद शर्म में ही जकड़ी रही।

याद करती हूं वो पहली मुलाकात, जब धड़कते दिल के साथ मैं तुम्हारे घर आई। हम दोस्त की तरह ही रहेंगे, ये एक – दूसरे को बोल कर हम पिज्जा खाने लगे। हां, अजीब सा था, पर तुम अकेले ही थे तो एक बहुरानी के रुप में मेरा आगमन नहीं हुआ था। मैं शादी के बाद भी वैसे ही आ गई, जैसे शादी के बिना भी आ सकती थी। थोड़ी बातों के बाद तुमने पिज्जा ऑर्डर किया। हम दोनों खाने लगे। खाते तो आज भी हैं पर उस समय तुम अचानक जैसे उठ कर मेरे पीछे आ गए थे, अब वैसा नहीं होता। तुम्हारी सांसों को मैंने अपनी गर्दन पर महसूस करना शुरु कर दिया था। मैं खाते खाते रुक गई थी।

क्या हुआ? तुम ठीक हो?- जब ये सवाल तुमने पूछा तो मैं समझ गई थी कि आज मैं कुछ भी नहीं कह पाउंगी क्योंकि आज मुझे तुम्हें ‘साहिब’ के रुप में देखना है, जो कुछ भी करेगा…मुझे अच्छा ही लगेगा। ‘मैं प्लेट रख कर आती हूं’…ये कहते हुए मैं उठी पर तुमने मेरे हाथ से उसे लेकर वापस रख दिया। ‘पानी लेकर आती हूं’-ऐसा कहकर मैं जैसे ही पीछे मुड़ी, तुमने मुझे पकड़ कर दीवार से लगा दिया। मैं बस अपनी अटकती और उलझती सांसों को सुलझाने में लगी थी। तुम्हारे होठों का स्पर्श मुझे मेरे चेहरे पर महसूस हो रहा था। हम दोनों की ही सांसें एक दूसरे में उलझ रही थी। तुमको मेरी ये घबराहट बहुत भा रही थी शायद। तुमने मुझे परेशान करने के लिए अपना सवाल दागा-‘क्या मैं तुम्हारा रेप कर रहा हूं?’ मैं हड़बड़ा गई और उसी घबराहट में आकर मैंने तुम्हें देख कर ना में सर हिलाया। ‘तो मतलब तुम्हें अच्छा लग रहा है?’…उफ्फ्फ्फ….क्या सुनना चाहते थे तुम। मैं अपनी हया को छिपाती हुई, खुद को संभालती हुई नज़रें झुकाए खड़ी थी। सीने पर तुम्हारे हाथों का दबाव…मेरे जिस्म पर तुम्हारे जिस्म का एहसास…मेरे होठों का तुम्हारे होठों से उलझना। कभी तुम मेरे बाल पकड़ कर खींचते और मैं हल्के दर्द से कराहती तो कभी तुम्हारे दांतों की चुभन में मैं सिसकती। धीरे धीरे सारे गहने मेरे जिस्म से उतर चुके थे। तुमने बहुत प्यार से पकड़ कर मुझे बिस्तर पर लिटाया। हमेशा साफ बिस्तर चाहने वाली मुझको बिस्तर की वो सिलवटें बहुत भाई थीं। किस तरह लिपटे थे हमारे जिस्म, जैसे कभी अलग नहीं होना चाहते। बजंर जमीं सी लगती थी मैं…तुम्हारे इश्क की बूंदों ने पूरा भिगो दिया था और तब पहली बार लगा कि मैं सूखी जमीं सी थी…बंजर नहीं। दर्द में रहकर भी सुख की अनुभूति होती है, ये एहसास तुमसे मिला। सूखे पत्ते की तरह कांप रही थी मैं। क्या हो रहा है, वो समझ ही नहीं आ रहा था। खुद को छिपाने की, खुद को संभालने की वो नाकामयाब कोशिशें मुझे आज भी याद है।तुम जिस्म के ज़रिए मेरी रुह में उतर आए थे। मैं पूरी हो गई थी उस दिन…वो प्यार…वो जज़्बात…वो समां…सब कुछ ऐसा ही था, जिसे शायद कभी ना भूला पाऊं। इन 25 सालों में भी नहीं भूल पाई। कोई कहां भूल पाता होगा वो लम्हा, जब कोई हमें हमसे भी ज़्यादा ज़रुरी लगने लग जाए। मुझे कभी कभी तुम्हारे उसी रुप की याद आती है। समय की कमी ने बहुत कुछ कम किया है पर फिर भी…मैं चाहती हूं कि तुम आओ…मुझे फिर से उलझाओ।

चाहती हूं कि उस रात की तरह एक बार फिर पूछो कि कैसा था मेरा प्यार? और मैं फिर से एक बार शर्मा कर कहूं…’ज़रा बोल्ड है’

 

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