मैं रखैल हूं…


मैं रखैल हूँ,

अपने मन की…

मेरा कोई जोर चलता ही नहीं मुझ पर

सूखे गिरे पत्ते की तरह

बयार में बस उड़ती ही जाती हूँ…

सपने के दरवाज़े पे

जब भी कोई दस्तक होती है

मन पहरेदार सा बन खड़ा हो जाता है

जैसे चाहता है वैसे घुमाता है

जैसे मैं कुछ हूँ ही नहीं…

या गर हूँ भी तो होने का बहुत कुछ मतलब ही नहीं।

कसमसा के रहने की आदत है मुझे

कुछ रोशनी मुझे अंधा बनाती है

मन के जूते की नोंक पे रहती हूं

उसी के साथ मेरा सोना उठना है

मुझ पर से हर तह वो उतार चुका है

हां,

मुझे हर दिन नंगा करता है वो

कुछ मुझे गुलाम भी कहते हैं

पर अब ये ही जीने की वजह भी है

सच तो ये है कि

मुझे अब आजादी रास भी ना आएगी।

तू…

मुझे पाने की कोशिश ना करना कभी…

तुझे हारता देख सुकून ना मिलेगा मुझे

तुझे पता है ना

रखैल होती नहीं कभी किसी की…

woman-painting

 

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