सुबह ऑफिस आते ही पता चला कि ह्रितिक और सुज़ैन ने तलाक़ के पपर्स पर साइन कर दिया और फाइनली इतने सालों का प्यार भरा रिश्ता टूट गया। 2 बच्चे भी हैं, जिसकी कस्टडी दोनों को ही दे दी गई है और बस…यही से मेरे दिमाग के घोड़े दौडने लगे। दो अलग हो चुके लोग अब बराबर बराबर बच्चों को देखेंगे। हो सकता है पर मुझे नहीं पता कि टुकड़ों में प्यार दे कर बच्चों को कैसे पूरा किया जा सकता है पर शायद ये संभव है। तभी तो ऐसा हो पाता है। रिश्तों का टूटना तो हमेशा ही तोड़ता है, चाहे वो ह्रितिक सुज़ैन का रिश्ता हो या फिर किसी दूसरे का।
शादी क्या है? कैसे रहा जाए इसमें? क्या कोई इसमें रहने की स्पेशल टिप है या कोई पाठशाला बनी है, जहां इसमें रहने का हुनर सीखा जाए या फिर शादी में रहने का बस एक ही तरीका है…बस उसमें रहा जाए…बस उसमें ही रहा जाए। नहीं नहीं….जब मैं ये कह रही हूं कि बस उसमें ही रहा जाए तो मेरा मतलब कतई ये नहीं कि बाहर के रिश्ते नज़र अंदाज़ किए जाएं। तुम ख़ुद याद करो…हमने कहां भला किसी को नज़र अंदाज़ किया था। हम तो सबके ही साथ थे। हमने अगर किसी को अनदेखा किया था तो वो हम तुम ही थे…
आज अचानक ही याद आ गई उस तलाक़ की, जो हमारे दरमियां हुआ था। हम दोनों भी प्यार के पंक्षी…ठीक वैसे ही जैसे ह्रितिक और सुज़ैन। हम दोनों ने भी परिवार की रज़ामंदी पाकर शादी रचाई…ठीक वैसे ही जैसे ह्रितिक और सुज़ैन। हम दोनों भी दो बच्चों के मां बाप बने…ठीक वैसे ही…हम दोनों भी जुदा हो गए…ठीक वैसे ही…मेरा तुमसे तलाक़ 400 करोड़ का नहीं था…पर 400 करोड़ से कम आंसु नहीं निकले थे मेरे।
तुम बुरे नहीं थे…मैं भी कम अच्छी नहीं थी…पर जाने क्यों हम साथ में नहीं रह पाए। शायद हम साथ में अच्छे नहीं थे। ह्रितिक सुज़ैन तो बॉलीवुड के आइडियल कपल हुआ करते थे। उन्हें देखकर लोगों ने रोमांस करना सीखा था ठीक हमारी तरह। पर देखो ना…जब कहीं कुछ अटक जाता है तो फिर वो अटक ही जाता है, फिर चाहे वो ज़िद हो, बेवफाई का दर्द हो, नासमझी हो या फिर ‘मैं’ का उठ जाना हो।
तुम्हें वो तनु याद है? अरे वही, जो ओरिफ्लेम का काम करती थी। घर आकर कई बार उसने प्रोडक्ट्स भी दिए थे। तुम्हें बहुत अच्छा मानती थी। थी इसलिए कह रही हूं क्योंकि जैसे ही उसे ये पता चला कि हम दोनों ने तलाक़ ले लिया है, तो तुम उसे अच्छे नहीं लगते थे। गुस्सा होने या बुरा मानने की बात नहीं इसमें। सब जगह ऐसा ही होता है।अपने अपने पक्ष हमेशा ही दयनीय लगते हैं। वैसे इसका उल्टा भी होता है। कई बार अपने ही पक्ष गुनहगार भी लगते हैं। लगता है कि इसी की ग़लती रही होगी। पता नहीं और भी जाने क्या क्या होता है…भला कहां समझ में आता है कि क्या क्या हो रहा है? सारा ध्यान तो उस बात पर रहता है कि अलग हो ही जाना चाहिए। हम खुद ही इस ज़िंदगी को चला सकते हैं। कई बार ये फैसला सही होता है और कई बार…बस हो जाता है…
याद है तुम्हें, पूरी तरह सोच समझ के चलने के बाद भी कोर्ट में कितना रोई थी मैं। दिल तो तुम्हारा तब भी नहीं पसीजा था। शायद सही ही हुआ, दिल पिघला कर तो रहना भी नहीं था ना। रिश्ता दया से नहीं, प्यार से चलता है। वो ही नहीं मिल पा रहा था जैसे अंतिम क्षण तक ह्रितिक को भी नहीं मिला।
हमारे दोनों बच्चे कभी तुम्हारे पास रहते हैं तो कभी मेरे पास। शुरु में तो मैंने सोच ही लिया था कि बस…अब तुम्हारा इनसे कोई वास्ता नहीं, पर भला हो भगवान का कि अंतत: मुझे ये समझ में आया कि तुमसे इन्हें दूर रखकर कुछ नहीं होगा…ना ही हमारा तलाक़ रुकेगा…ना ही बच्चों के हक में ये सही रहेगा और ना ही एक पिता के साथ इंसाफ होगा। जानते हो…जब भी ये तुम्हारे पास जाते हैं ना तो मैं अधूरी हो जाती हूं पर खुश होती हूं ये सोचकर कि जाने कितने तलाक़ होंगे दुनिया में, जहां बच्चे बस बीच में पिस कर रह जाते हैं। आधी आधी ही सही, पर उनके हिस्से की खुशी तो उन्हें पूरी मिलनी ही चाहिए। भला उन्होंने थोड़े ही ना हमें ये लड़ाई झगड़े या बेवफाई सिखाई। फिर जब किसी काम में उनका हाथ नहीं, तो फिर उसका फल भी उन्हें क्यों मिले? साथ रहने की सज़ा ज़रुर मिलती है उन्हें…दर्द से तो गुज़रते ही हैं वो, बड़े होकर जाने कितने सवालों से भी। कुछ दुनिया के सवाल और कुछ खुद के…
हमेशा यही कहती हूं कि जिसे घिसट कर…खींच खींच कर चलाया जाए, उससे बेहतर उसे मुक्त किया जाए…मैं भी मुक्त हो गई…तुम भी…ह्रितिक और सुजैन भी…आने वाला कल शायद आज से बेहतर भी हो…पर फिर भी…टूटना तो हमेशा तोड़ता ही है…