घर


कल रात सपने में एक घर देखा

वैसा ही घर,

जो तेरे और मेरे ज़िक्र में होता था

एक बड़ा सा बरामदा,

जहां हम दोनों के गीले सपने सूखते थे…

कमरे में हमारी ख्वाहिशें थीं,

जो जगह जगह

दीवारों पर टंगी थीं…

किचन…

जहां हम,

अपने दर्द को काट कर पकाया करते थे

उस सुकूं के स्वाद को कैसे बयां करुं?

बालकनी में हमने अपनी खुशियां टांग रखी थी

जाने क्यों…

पर बहुत गुमां होता था खुद पर

हमारी चाहतों की छत भी बहुत मजबूत थी

जिसके नीचे हमने कई फ़साने गढ़े

हमारे प्यार को तुम हमेशा

अलमारी के अंदर लॉकर में ही रखते थे

तुम्हें उसके खोने का डर था

और वो बेडरूम…

जहां बिस्तर की सिलवटें,

हमेशा एक नया अहसास देती थीं

खिड़कियों से बाहर

जब हमारे प्यार की खूशबू

हवाओं में मिलती थी

तो जैसे मानो

पूरी दुनिया महक उठती थी

आज सपने में मैंने

उसी महकती दुनिया में

‘उसी’ घर को देखा…

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