खोना चाहिए हम सबको…खुद को पाने के लिए खोना ज़रुरी है। हम सब अपनी ज़िंदगी में कभी ना कभी खोते ही हैं…गुम होते ही हैं। कभी कभी हम खुद ही अपने आप को ढ़ूंढ़ लेते हैं और कभी कोई हमें खोज लेता है। वैसे सोचो तो सच ही कहते हैं ना बड़े बुजुर्ग कि हम सबको अपनी ज़िंदगी में किसी ना किसी का होना चाहिए। हो सकता है कि दिल ये सोचे कि क्यों होना चाहिए हमें किसी का? क्या इतना ज़रुरी है? तो इसका उत्तर है – ‘हां’…इतना ही ज़रुरी है। सोचो, कभी खुद से मुलाकात ही ना हो तुम्हारी तो तुम्हें कभी पता ही नहीं चलेगा कि तुमने क्या मिस किया। क्या तुम नहीं जानना चाहते खुद को…नहीं मिलना चाहते खुद से…खुद से नहीं मिले तो कहीं आगे चलकर तुम्हें ज़िंदगी बेमानी सी ना लगने लगे…
कुछ कहा क्या? सॉरी…मुझे लगा जैसे कहा हो। ओह, सच में कहा…डर लगता है खोने से? पर क्यों? अरे…घबराने की ज़रुरत नहीं है…खोने जैसा हमारे पास कुछ खास रहता नहीं है जो डर लगे। सही कहूं तो हमें जो लगता है कि हमारे पास ये है जो खो जाएगा, वो ज़बर्दस्ती का हमारा ही बनाया हुआ है। यकीं करो…कुछ नहीं खोता। ओह…कहीं तुम्हें ऐसा तो नहीं लग रहा कि इज्ज़त चली जाएगी…कोई छल लेगा… तो दिल पर हाथ रखकर एक बार गीता की कसम खा कर बोलो…क्या सच में तुमसे बेहतर कोई छलिया हो सकता है ? क्या सच में किसी के पास इतनी ताकत है जो तुम्हें छल सके? अच्छा चलो…मान ली तुम्हारी बात…डर भी वाज़िब जाना पर फिर क्या? एक्सिडेंट के डर से रास्ते पर चलना किसने छोड़ा आज तक। अरे! यही तो मज़ा है। जब तुम्हें लगता है कि छला जा सकता है तो संभल कर चलो। उसके बाद भी तुम्हारी नज़रों में कोई तुम्हें छल ही ले तो फिर तो पक्का समझो कि अभी तुम खुद को पाने की दिशा में ही बढ़ रहे हो। निकलो अपने डर से…निकलना ज़रुरी है। नहीं आ रही ना मेरी बातें तुम्हें समझ में। जानती हूं…मतलब की बात तुम्हें कभी समझ में आ भी नहीं सकती।
छोड़ो…ज़्यादा पेचीदगी में नहीं फंसाना चाहती। बस समझा रही हूं…ज़िंदगी में जब किसी का होना ही है तो फिर तुम भी हो जाओ…
चाहे खुद के ही सही…