नहीं है…नहीं है…


‘नहीं, कुछ नहीं हो सकता…कुछ भी नहीं हो सकता छाया…कुछ नहीं हो सकता…मैं ये लड़ाई नहीं लड़ सकता, जिसे लड़ने से पहले ही आदमी हार जाता है…मैं हार गया हूं छाया…’

‘मैं तुम्हारे साथ हूं सुदीप…तुम्हारे साथ छोटी सी खोली में भी अपना घर बसा लूंगी..’

‘घरौंदा’ फ़िल्म का कुछ ऐसा ही डायलॉग याद आ रहा है मुझे। ये दिल के खेल भी कितने अजीब होते हैं ना जिसमें हार और जीत, दोनों ही अपनी खुद की होती है। तुम्हें याद है, जाने कितनी बार मैंने भी कहा था कि मैं तुम्हारे साथ हूं…हम भी अपना एक घर बसा लेंगे…तुमने भी अपनी बाहों में भरते हुए मुझे हां का इशारा दिया था…पर आज देखो ना…सब बिखर गया…सपने कुछ ऐसे टूट कर बिखरे हैं जैसे उसे किसी ने बुलडोज़र से कुचल दिया हो। मैं नहीं हारी कभी भी, फिर तुमने क्यों और कैसे बीच सफर में छोड़ दिया मुझे?

‘क्यों पीते हो इतना…छोड़ो ना’….तुम्हारे हाथों से ग्लास लेना चाहा था मैंने। तुम कितने झल्ला गए थे ना…’समझती क्यों नहीं…मैं सो नहीं पाउंगा अगर नहीं पीने दोगी तो’। ‘मैं जगी रहूंगी तुम्हारे साथ। एक दिन नहीं सो पाओगे, दो दिन नहीं सो पाओगे…तीसरे दिन तो नींद आएगी ना।‘ कहकर मैंने तुम्हारे हाथों से ग्लास ले लिया था। ‘घरौंदा’ में भी तो छाया ने मोदी को कुछ वैसे ही नींद की दवा नहीं खाने दी थी ना। उफ्फ…क्यों सोच रही हूं इतना…वो फ़िल्म थी…ज़िंदगी की कहानी फ़िल्म से मिल तो सकती है पर वो फ़िल्म नहीं हो सकती।

अच्छा चलो, अब फ़िल्म के अंतिम क्षणों की तरफ बढ़ती हूं। सुदीप शिकायत करता है छाया से कि ‘मैंने कहा और तुमने मोदी से शादी कर ली। छाया जवाब देती है कि तुम टूट चुके थे और सुदीप इस बात पर शिकायत करता है कि तुमने ही कौन सा संभाल लिया। मुझे सहारा देना तुम्हारा फर्ज़ नहीं था? मेरे सारे रास्ते तुम तक आते थे। तुमसे टूट कर ये रास्ते पता नहीं कहां ले जाएंगे। सिर्फ इतना मालूम है कि बहुत कोशिश के बावजूद भी तुम्हें भूला नहीं पाया।‘

सुदीप का ये दर्द मुझे क्यों दर्द दे गया? मुझे भी तो जाने का इशारा कर दिया तुमने…एक लंबा अर्सा बीत गया है पर मेरी खोज ख़बर लेने की सुध तुम में नहीं आई है। चली जाऊं क्या? गर गई तो सुदीप की तरह शिकायत तो नहीं करोगे मुझसे? सुदीप जैसी बिखरी हालत तो नहीं हो जाएगी तुम्हारी? सोचती हूं…उस घरौंदे का क्या होगा जो हमने मिल कर बनाया था। तुम्हें पता है, तुम्हारी बाहों में मैंने भी अपना पूरा आशियाना पाया था। मेरी ज़िंदगी तुम से ही माना था। अब वापस एक बिखराव और भटकाव दे दिया तुमने…अब संभालने कौन आएगा मुझे…

चलो छोड़ो…छलावे में ही रह जाउंगी शायद…एकदम अंतिम सीन को याद कर लेती हूं। मोदी के रोकने पर सुदीप का वो कहना – ‘ज़िंदगी केवल छाया ही तो नहीं…कहीं असलियत भी है…और जो असलियत है वो छाया नहीं।‘

हां…मेरे लिए भी तो यही सब है…तुम असलियत नहीं और जो असलियत है वो तुम नहीं…ज़िंदगी का एक हिस्सा ऐसे अलग हुआ जैसे जिस्म का हो…

एक आखिरी बार ‘घरौंदा’ का ये गाना याद कर लेने दो मुझे…..मुझे प्यार तुमसे नहीं है मगर मैंने ये राज़ अब तक ना जाना…कि क्यों प्यारी लगती हैं बातें तुम्हारी..मैं क्यों तुमसे मिलने का ढूंढ़ू बहाना…कभी मैंने चाहा तुम्हें छू कर देखूं…कभी मैंने चाहा तुम्हे पास लाना…मगर फिर भी…इस बात का तो यकीं है…मुझे प्यार… तुमसे…नहीं है नहीं है…

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