आज ज़माने बाद उस ज़माने की याद आ गई, जो हम दोनों ने साथ मिलकर बुने थे। गर्द में दबे लम्हों को जब हटाया तब तुम्हारा चेहरा थोड़ा थोड़ा सा नज़र आया। यादों की पगडंडियों से गुज़रते हुए मैं उस गली में जा घुसी जहां हम अठखेलियां किया करते थे। गुंथ गई थी मैं तुम्हारे साथ। समाज भला कैसे अलग कर सकता था हमें? भला कभी कोई गुंथने के बाद आटे और पानी को अलग कर पाया है?
वो हवाएं भी कितनी अजीब सी होती हैं ना, जो साज़िश करती हैं मेरे ख़्यालों से तुमको उड़ा कर ले जाने की। ग़लती उनकी भी नहीं…उन्हें क्या पता कि हर चीज़ इतनी हल्की तो नहीं होती जो उड़ सके। तुम्हें याद है वो सर्दी, जब लॉन्ग कोट पहनने के बाद भी मुझमें गर्मी को वो एहसास नहीं आया, जो मात्र तुम्हारी हथेलियों ने दे दिया था। नारी सुलभ गुण थे मुझमें और इसीलिए मैं हिचकती रही कि लोग क्या कहेंगे ऐसे हाथ पकड़ने पर…पर तुम…ठहरे एक स्वतंत्र पुरुष…मत सोचो…मैं हूं ना…
वो पल कितना हसीं सा था ना…जब कल कल करती नदिया के पास हम-तुम बैठ कर अपने कल को संवारते थे। प्यास लगी थी तुम्हें। तुमने मेरे पांव को छूकर बहते पानी को पिया। हड़बड़ा गई थी मैं…अरे! ये क्या? ऐसे कैसे पी रहे हो पानी? तुमने मेरे पैरों को अपनी गोद में रखते कहा कि पी लेने दो…इन चरणों से इतर कुछ भी नहीं मेरे लिए। मुझे मेरा रब दिखता है यहां। कैसी सिमट गई थी ना मैं तुम्हारी आगोश में, जैसे अब सबको इत्तिला हो गई है हमारे इस एहसास की और अब सब बिखरने वाला है।
ये जो कुछ बिखरे बिखरे से लम्हें इधर उधर फैले पड़े हैं ना, उन्हें समेटना चाहती हूं। असह्य पीड़ा के एहसास से गुज़र रही हूं मैं, पर ये बात मेरी सोच से परे है कि तुम्हारी यादें कील सी क्यों चुभ रही हैं? तुम्हारे लिए सिर्फ प्यार है मेरे अंदर, फिर भला एक पराए मर्द का भाव दिल में यूं क्यूं समाया है तुमको लेकर? ये बिछोह के मौसम तो आते जाते रहे हैं हमारे दरमियां…इस बार भी बदलते मौसम के साथ तुम आ जाना। एक बार फिर से बताना कि कितनी अजीज़ हूं मैं तुम्हारे लिए…जैसे हमेशा बताते थे… हर ज़िरह से परे एक बात तो साफ है…हम एक हैं…
तुम्हें पता है ना…
हर बार ख़त्म होने का मतलब ख़त्म होना नहीं होता…