अभी अभी अपनी बहन की शादी से आ रही हूं…खोई हुई हूं उन तमाम रस्मों में…रिवाज़ों में…मस्ती और ठहाकों में…तुम में…
हल्दी के रंगों में रंगी दुल्हन पर जो सरसों वाला रंग चढ़ता है ना, कहते हैं कि वो बहुत ही शुभ होता है। मेरी बहन पर भी वो बसंत ऋतु आई थी…पहले से ही निखरी थी मेरी बन्नो…कुछ हल्दी ने तो कुछ सइयां के पास जाने के एहसास ने उसे और निखार दिया था। रुप कुछ ऐसा ही निखर कर आया जैसे पॉलिश के बाद से सोने का रंग निखर जाता है। तुम्हें याद है वो पीली साड़ी, जिसमें लिपट कर मैं पहली बार तुम्हारे पास आई थी…हां..कुछ वैसा ही रंग दिखा मुझे। प्यारा सा…बस चढ़ गया था।
मेंहदी भी लगी। नाच-गाना भी हुआ। फुलों के हार में सजी मेरी बहन किसी अप्सरा से कम नहीं लग रही थी। मैंने भी लगा ली मेंहदी। यकीं नहीं करोगे तुम, पर मेरी हथेलियों पर लाल रंग यूं उतर आया था, जैसे सूरज के डूबने पर आसमां में उतरता है। कहते हैं कि ज़िंदगी में प्यार हो तो रंग चढ़ ही जाता है…अब ऐसे में भला मुझ पर कैसे नहीं चढ़ता? मेरे लिए तो मेरा प्यार पूरा ही है ना।
सारे घर के लोग…कहीं गाना बजाना, कहीं हंसी ठहाके…कहीं थोड़ी सी घबराहट तो कहीं छेड़खानी…इससे खूबसूरत रस्मों रिवाज़ भला कहां देखने को मिलते हैं? जिनसे मिले हुए ज़माने हो जाते हैं, उन सभी से मुलाकात सिर्फ इसी दशा में संभव हो पाती है। एक खुशी की लहर छाई रही मुझ पर। बताना और जताना बहुत नहीं आता मुझे, पर इस बार वो काम भी थोड़ा बहुत कर ही लिया मैंने…
शादी की सुबह बहुत प्यारी थी। पहली बार मैंने बालों में गजरा भी लगाया। हाथों में चूड़ी, माथे पर बिंदी, गले में हार, कान में झूमके…हां…ठीक वैसी ही दिख रही थी, जैसी तुम्हें भाती थी। मेरी बहन का हाल तो बस पूछो ही मत। कोई दुल्हन भला कितनी सुंदर हो सकती है? मेरी बहन सबसे हसीं कनिया लग रही थी। ‘कनिया’ के बारे में बताया था ना मैंने…गांव में जब भी कोई नई बियाहता आती थी, तो उसे सब ‘कनिया’ ही कहते थे। फूलों की चादर के नीचे जब वो आई, तो लगा जैसे आसमां से परी उतर रही हो। चांद उसके चेहरे पर उतर आया था। पिताजी…भाई…बाबूजी….सबने मिलकर अपनी उस नन्ही सी जान को मंडप तक पहुंचाया। दुल्हन की तरह ही वो मंडप भी बेहद खूबसूरत था। मैं काफी देर तक देखती रही। याद है, मंडप पर जाने से पहले मैंने तुम्हें कहा था कि यहां से लड़की की दुनिया बदल जाती है…मेरी बहन की भी बदल गई। मेरे घर की कई भूमिकाओं के साथ साथ वो दूसरे घर की भी कई भूमिकाओं में एक बार में ही चली गई।
कन्यादान का वो दृश्य नहीं भूल पाती। पिताजी को क्या अनुभूति हो रही होगी…बता पाना मुश्किल है। एक ही पल में अपनी पुत्री का दान करना सिर्फ मंडप पर ही संभव हो पाता है। सभी की आंखें नम थीं…शायद कुछ दर्द थे…शायद कुछ खुशी थी….
दुल्हा शब्द खूबसूरत है…पति शब्द उससे भी ज़्यादा। मेरी बहन के पति को जब पहली बार देखा तो कुछ खास समझ में नहीं आया वो मुझे। पहली मुलाकात में तो तुमको भी नहीं समझ पाई थी…पर जब फिर मिली…फिर मिली…और फिर मिली…तो लगा कि कुछ लोगों को मिलना ही था। वो बना ही इसलिए था कि मेरी बहन को एक अलग दुनिया में लेकर जाए। मैं खुश थी…हम सब बहुत खुश थे…हैं…हमेशा रहेंगे… उनके प्यार से मुझे प्यार हुआ है।
विदाई के वक्त पिताजी ने कहा कि बस इस एक पल के लिए वो लोग लकी हैं जिनके पास बेटी नहीं है। मैं महसूस कर पा रही थी उनकी पीड़ा…जिसे उन्होंने ये कहकर व्यक्त किया था।
मैं वापस अपने शहर में आ चुकी हूं। उन्हीं यादों में घिरी पिताजी को फोन किया मैंने। कह रहे थे कि एक साल से चल रही तैयारी दो दिन में ही खत्म हो जाती है और फिर सब कुछ वापस वैसे ही ढ़र्रे पर चलता है। बात तो सच ही है। ज़िंदगी कुछ ऐसी ही चलती है …दुख..दुख…दुख… दुख..सुख…दुख..दुख..दुख…सुख…दुख…दुख…सुख…अजीब सी है ना ये ज़िंदगी की चाल…पर अब ऐसी ही है…क्या कर सकते हैं…
मेरी बहन ने अपनी एक कहानी पूरी की है इस घर में और बाकी की कहानी शूट करने के लिए वो अपने हमसफर के घर गई है…
हमारी नहीं थीं पर चाहती हूं कि उन दोनों की ख्वाहिशें हमशक्ल हों….आमीन!