खुले आकाश में उड़ती वो पतंग
बन जाती है हाथों की लकीरों की तरह
जो हथेली में रहकर भी काबू में नहीं
अपनी डोर किसी के जिम्मे डाल
एक निश्चिंतता के भाव में आकर
यकीन के साथ जाती है उड़
पर अक्सर मात खाती है किस्मत
या तो कटकर मौत मिले
या फिर दूसरों के घर की छत
उस दुख को कोई क्या जाने
जो एक विश्वास के साथ मिला
नहीं संभाल पाने की शिकायत
पतंग नहीं करती किसी से
किसी की हार तो किसी की जीत
किसी का अंह तो किसी का क्रोध
इन सबके बीच उड़ती वो पतंग
दुल्हन की तरह सजने के बाद भी
नहीं मिल पाता कोई पिया
अपना कहा जाने वाला
जाने क्या रहता होगा पतंग के पास…….