कल शाम सोचा कि कहीं बाहर जाऊं, थोड़ा घूम फिर कर आऊं। बस…फिर क्या था…निकल गई मैं एक लॉन्ग ड्राइव पर। तुम साथ थे नहीं, तो मुझे ही थक हार कर चलानी थी कार। सोच में गुम अपने आप ही कार की स्टेयरिंग मुड़ गई उस तरफ, जहां हमने नया आशियाना लिया था। लास्ट टाइम जब हम साथ गए थे, तब उसमें कुछ काम चल रहा था, पर कल जाकर देखा तो वो पूरा हो चुका है। हां, हमारा घर बन चुका है…पूरा का पूरा…
‘ये आपका फ्लैट है बेटा?’ वहीं पास खड़ी एक आंटी ने मुझसे पूछा।
‘जी…’ मैंने भी उनकी तरफ मुस्कुरा कर कहा। ‘आपने भी लिया है यहां?’ मैंने उन्हें देखकर सवाल दागा।
‘हां, सोच तो रहे हैं बेटा..इनको रिटायरमेंट का पैसा मिला है तो सोच रहे हैं कि एक छत तो अपनी होनी ही चाहिए’ आंटी ने मुस्कुरा कर जवाब दिया। मैं भी जवाब में हंस दी। तभी अंकल आए और आंटी से पसंद पूछने लगे।
अंकल – ठीक से देख लो…फिर ये ना कहना कि छोटा है।
आंटी – देख लिया बाबा। अच्छा है। किचन और बाथरूम बड़ा चाहिए था, जो है।
अंकल – तो लॉक कर दूं इसको?
आंटी – हां, अब क्या इसको भी सिंदूर लगा कर ही लॉक करोगे ?
अंकल – (हंसते हुए) अरे नहीं भाग्यवान, उस तरह से तो सिर्फ आपको ही पाया है मैंने।
मैं उन दोंनो की बातों को इंजॉय कर रही थी। मुझे हमारा भविष्य दिखने लगा। 62 के आप पास की उम्र रही होगी दोनों की। घर को लेकर उनका वैसा ही उत्साह था, जो हमारा था।
‘ये वाला कमरा मेरा होगा…और ये वाला मेरे घर वालों के लिए रहेगा….ये बाहर वाला गेस्ट रुम होगा और ये जो छोटा रुम है, इसमें बच्चे रहेंगे।‘ मैं एक ही सांस में पूरे घर के हिस्से तय कर चुकी थी। तुमने बाहों में भरते हुए पूछा था मुझसे – कि और मेरा हिस्सा क्या रहेगा? मैंने पूरी मासूमियत के साथ तुम्हें बालकनी दिखा दी थी।
वैसे पता है तुम्हें…पूरा घर अच्छे से बनाया है बिल्डर ने। तुम्हारे हिस्से की बालकनी तो और भी अच्छी है…बड़ी और खुली हुई। उस दिन बताना भूल गई थी इसलिए आज कह रही हूं –
तुझे याद तो है ना हमारा वो किस्सा
एक-दूजे की ज़िंदगी में हमारा हिस्सा