ज़रुरत…


‘तुम्हें पता है, एक आदमी को ‘अपनी’ औरत की ज़रुरत हमेशा ही होती है। अगर वो एक वास्तविकता की ज़िंदगी जी रहा है, तब भी और अगर वो एक ख़्याली ज़िंदगी में रह रहा है, तब भी…’- मायरा ने साहिल की आंखों में देखते हुए कहा था।

‘ये सब मुझे क्यों बता रही हो? क्या मैंने कुछ भी कहा है तुम्हें?’ साहिल ने झुंझलाते हुए पूछा था। मायरा ने साहिल की तरफ देखा, मुस्कुरा कर ना में सर हिलाया और अपना काम करने लग गई थी।

ये वो बातें हैं, जो मायरा अक्सर मुझसे बांटा करती थी। आज फिर वही सिलसिला जारी था। मायरा की बातें सुनकर मुझे हमेशा ही तुम याद आए हो। तुम्हारा प्यार भी चांद की तरह था। हमेशा ही बढ़ते घटते रुप में हासिल होता था मुझे। तुम्हें भी मैंने कहा ही था कि तुम रह नहीं सकते मेरे बिना। अपने सपने में भी नहीं, अपने ख़्यालों में भी नहीं और हक़ीकत ज़िंदगी में भी नहीं।

‘तुझको पता है, साहिल के लिए सब कुछ करती हूं। हर वो एक भूमिका, जिसका निर्वाह एक संगिनी को करना चाहिए, निभाती हूं…पर कभी कभी उससे ज़्यादा अजनबी चेहरा कोई और नहीं लगता। कभी-कभी जो अधूरापन महसूस होता है, उसके साथ जीना मुश्किल सा लगता है।‘ मायरा अपना हाले दिल बयां करती रहती थी। मेरा काम शांति से सुनना और अपनी समझ से उसको समझ देना होता था।

तुम्हें याद है, एक बार तुमने कहा था कि मैं एक औरत की गहराई के बारे में कुछ बात करूं और मैंने हंस कर कहा था कि बात कर तो लूं पर तुम समझ नहीं पाओगे। कितना हैरान हुए थे तुम कि क्यों नहीं समझ पाउंगा। मैं हंसी थी। नहीं…तुम्हारे बस की बात नहीं थी। शायद किसी के बस की बात नहीं होती कि वो औरत के मन की गहराई को समझ सके।

‘क्या करूं…साहिल नहीं समझ पाता मेरे मन की गहराई । जानती हूं मैं उसे अच्छी लगती हूं। बोलता है तो मानती भी हूं कि प्यार भी करता होगा पर उसकी आंखों में सिर्फ मेरा ही तो चेहरा नहीं। और भी जाने कितने ही चेहरे हैं जो उसे भाते हैं और इस सच को स्वीकारते हुए भी मन में बस उसकी छवि को मैं रख पाती हूं तो वो मेरी गहराई है, जिसे वो नहीं ही समझ पाएगा।‘ मायरा का दुख कई बार छलका था।

‘तुम चाहे जितनी भी जगह जाओ, कुछ पल के लिए मन से भटक भी जाओ, पर फिर कह रही हूं, रह नहीं पाओगे मेरे बिना। किसी और के पास भी जाकर ढूंढोगे मुझे ही।‘ मैं किसी लड़ाई में अपने दिल की भड़ास निकाल रही थी। तुम चुपचाप सुनते जा रहे थे।

‘कहीं नहीं जाउंगा….ना ही जाने दूंगा। रह ही नहीं सकता तुम बिन। कभी ना छुटने वाली आदत बन गई हो, जिसने मुझे, मेरे घर को, मेरी ज़िंदगी को संवारा है। हां, कभी कभी कुछ ग़लतियां होती रहती हैं मुझसे, जिनपर तुम्हें गुस्सा आता है पर मेरी ज़िंदगी की औरत तुम ही हो। बस यही एक सच है, इसके इतर जो कुछ भी है, मेरा उससे वास्ता नहीं। ‘टेढ़ा हूं, पर यकीं करो, सिर्फ तुम्हारा हूं…’ मैं रुठी थी और तुमने मुझे मनाने की कोशिश की थी।

मैंने बहुत भाव नहीं दिए थे पर मैं जानती हूं…. एक आदमी को ‘अपनी’ औरत की ज़रुरत हमेशा ही होती है। अगर वो एक वास्तविकता की ज़िंदगी जी रहा है, तब भी और अगर वो एक ख़्याली ज़िंदगी में रह रहा है, तब भी…

0001-SOULMATES MASTHEAD

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