सत्ता


बहुत दिनों से सोच रही हूं…सच कहूं तो शायद हमेशा ही सोचती रहती हूं कि मैं चाह क्या रही हूं? थोड़े थोड़े से जवाब मिलते रहते हैं और यकीं करो तुम कि ये जवाब भी हमेशा बदलते रहते हैं। क्या चाहती हूं मैं? एक ऐसी जगह, जो मेरी हो। जहां मेरी सत्ता हो। अपना साम्राज्य बनाना चाहती हूं मैं। सुनकर लग रहा होगा ना कि मैं ऐसी चाहत भला कबसे रखने लगी, तो सुनो…भला किसको नहीं चाहिए अपना साम्राज्य?

किसी भी औरत को देखो, तो वो भी यही चाहती है कि उसका घर उसके तरीके से सजे, संवरे और चले। उसका घर ही उसकी सत्ता होती है। मैं भी यही चाहती हूं तो भला क्या ज़्यादा और क्या ग़लत चाहती हूं? तुम ही बोलो, क्या बहुत बड़ी चाहत है मेरी।

मैं लालची नहीं। सच में, किसी भी चीज की ऐसी लालसा नहीं, जो दुख का कारण बने। किसी चीज के पीछे भागना भी अब तक फितरत में शामिल नहीं। बहुत सारे लोगों से किस्से कहानियां सुनती रहती हूं। यकीं करो, ना कभी उनके प्रभाव में आई और ना ही कभी उनसे विचलित हुई। हां, सत्ता की चाहत हमेशा ही बनी रही। नहीं…शायद हमेशा से नहीं…वक्त के साथ इस इच्छा ने सर उठाया है। ग़लत क्या है तुम ही बोलो। सत्ता का सपना भी तुमने ही दिखाया। मेरे अंदर ऐसी कोई चाहत नहीं थी। तुम्हारे प्यार ने कब मेरे अंदर एक ‘घर’ का निर्माण कर दिया, मुझे पता ही नहीं चला। अब जब वक्त के साथ हम दोनों की सोच ने चाहतों का इतना मजबूत घरौंदा तैयार कर ही लिया है तो भला कैसे उसमें अपनी सत्ता को ना खोजूं? कैसे ना मानूं कि यहां मैं ही हूं, जो हूं। इसे सजाने का, इसे बनाने का फैसला मेरा होगा….तुम्हारे साथ मिलकर।

वैसे एक रास्ता तो था मेरी इस सोच को तोड़ने का। कोई तेज़ आंधी आती और ये प्यार की दीवार टूट कर गिर पड़ती, पर ये भी नहीं हो सका। खुद हम दोनों ने मिलकर कितनी बार कोशिश की कि दीवार टूट जाए…या कम से कम इतना तो हो ही जाए कि कुछ ग़लतफ़हमियां रिसने लगे दीवारों के बीच में से…कुछ कड़वाहटों से सीलन आ जाए…कुछ तकरार से दरार पड़ जाए…पर कुछ भी ना हो सका। हमें भी भला कहां पता था कि हम ऐसी मजबूत दीवार तैयार कर रहे हैं। अब जब मुझे पता है कि ये जगह ना टूट सकती है और ना ही छिन सकती है तो अब नहीं छोड़ सकती इस सत्ता का मोह। अब ये मेरा मोह भी मेरे साथ ही जाएगा।

कहते हैं कि प्रकृति का ये नियम है कि सब कुछ बदलता है। कुछ भी हमेशा एक जैसा नहीं रहता। परिवर्तन तो मेरी ज़िंदगी में भी हुआ और तुम्हारी में भी और शायद इसी परिवर्तन ने हमें मिलवाया है।  मैंने ज़िंदगी की परिभाषाएं ही तुमसे सीखी हैं। तुमसे मैंने जीवन के अर्थ को समझा है। चलो, वादा कर लेते हैं कि परिवर्तन का फैसला प्रक़ति पर ही छोड़ेंगे…हम खुद कुछ भी बदलाव करके प्रकृति के काम में हस्तक्षेप नहीं करेंगे।

सुनो, तुम मुझ में हो और मैं इस सत्ता में और मैं अपने साम्राज्य को अब सजा संवार कर बसा रही हूं…

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