अभी आए हो…आओ…अभी जाओगे…जाओ….
कितना मुश्किल होता है ना किसी के लिए सब कुछ इतना आसान बनाना, पर तुमने हमेशा ही इस मुश्किल काम को मेरे लिए आसान किया है। जब भी मैंने आवाज़ दी, तुम दौड़ते हुए से आए…कल भी कुछ ऐसा ही हुआ…
बरिस्ता या सीसीडी…क्या पसंद है तुम्हें? मैंने तुम्हारे चश्मे के पीछे छिपी गहरी आंखों में देखते हुए पूछा था। तुमने वही चिरपरिचित प्यारी सी मुस्कुराहट के साथ कहा – स्टारबक्स। हम दोनों ही एक मुस्कुराहट के साथ कॉफी पीने निकल गए। पहले कभी आई हो तुम यहां? – तुमने मुझसे सवाल पूछा। मैंने ना में गर्दन हिलाया और कहा – ‘पहली बार’….तुमने एक मुस्कुराहट दी।
ये जो ‘पहली बार’ शब्द है ना, इससे बड़ा गहरा नाता है हम दोनों का। सबकी ज़िंदगी में सारी ही चीज़ें पहली बार होती हैं…मेरी ज़िंदगी की अधिकांश चीज़ों में पहला हिस्सा तुम्हारा ही रहा…ये इस तरह से कॉफी पीने भी मैं पहली बार तुम्हारे साथ ही गई थी…
‘निखिल आजकल बहुत परेशान है। उसकी पत्नी तो जानती थी उस नए रिश्ते के बारे में, अब उसकी बेटी भी जानती है। उसको भी बुलाया है मैंने आज। सोचा हमारे साथ बैठेगा तो उसका दिल हल्का हो जाएगा‘ – तुमने कॉफी पीते हुए निखिल का ज़िक्र छेड़ा था। ‘ओह, पर अब तो उसकी बेटी रिमी 17 साल की हो गई ना…हम्म…मुश्किल हो रखी होगी ना ज़िंदगी।‘ – मैं भी परेशान थी निखिल की हालत से।
निखिल ने लव मैरिज की थी। शादी के कुछ समय बाद बेटी के रुप में रिमी आई ज़िंदगी में और एक प्रेमिका के रुप में निहारिका। निखिल ने बहुत कोशिश की कि उसका दिल निहारिका को ना निहारे, पर दिल के मामले में भला कब कहां कौन सी चीज़ काम करती है? दो रिश्तों को एक साथ जीना पड़ रहा था उसको। कुछ समाज, कुछ परिवार तो कुछ रिमी…हां, यही सब अवरोध थे उसके सामने कि ना वो दिल की कर पा रहा था और ना ही दिमाग की सुन पा रहा था।
‘हैलो…सॉरी, मैं लेट हो गया’ – निखिल ने अपने धूप का चश्मा निकाला और सोफे पर पसर कर बैठ गया। मैंने उसको देखकर हंसते हुए कहा कि बासी ख़बर है, कोई नई बात बताओ। मेरे इतना कहते ही तुम दोनों ही मेरे साथ हंसने लगे। निखिल की भी कैपेचिनो आ गई। अब हम सबके पास अपनी अपनी कॉफी थी, पर निखिल के पास उसके दिल में उठने वाला तूफान भी था।
यार अब मैं नहीं कर सकता। कैसे समझाऊं तुम लोगों को…मेरे लिए ये हर दिन मुश्किल होता जा रहा है। मैं जब रात को उसके साथ सोता हूं तो एक वैश्या का दर्द याद आता है। मैं बस सब संभालने के चक्कर में सब करते हुए जा रहा हूं। मेरी बेटी को भी इस बात का पता चल चुका है अब। नफरत करती है शायद मुझसे। उसका बाप किस मनोदशा से गुज़र रहा है, उसको ये बात समझने में अभी 7-8 साल लग जाएंगे। मैं डरपोक हूं शायद। मैं क्या कर रहा हूं, मुझे भी नहीं पता। रात को बाथरुम में जाकर मुंह पर कपड़ा रखकर रोता हूं। क्या करूं?
मैं हतप्रभ थी निखिल की बातें सुनकर। तुम मुझे देख रहे थे। शायद उस वक्त हम दोनों को ही निखिल की बातें कम और अपना अतीत ज़्यादा याद आ रहा था।
तुमने भावना के साथ शादी की थी। शादी के 1 साल बाद ही परिवार के दबाव की वजह से तुम दोनों की ज़िंदगी में अनिशा आ गई। भावना ने कभी तुम्हारी भावना को शायद नहीं समझा था और यही कारण था कि काफी कोशिशों के बाद भी तुम और भावना इस रिश्ते को नया मोड़ नहीं दे पाए। भावना के साथ रिश्ते में रहते हुए ही तुम मुझसे मिले और धीरे धीरे शुरु हुई दोस्ती ने एक नया मोड़ लिया। रिश्ता मन से था इसलिए हम दोनों ही रिश्ते की गरिमा को बनाकर बिना किसी शर्त के चल रहे थे। भावना के साथ तुम्हारी कड़वाहटें बढ़ती जा रही थीं। अनिशा के बारे में सोच कर तुमने इस रिश्ते को अपने 3 साल दिए पर रिश्ते के अंत के साथ ही इस रिश्ते का अंत हुआ। 4 साल तो तुमने मुझे भी दिए थे। हां…4 साल की मुलाकातों के बाद तुमने मेरे साथ फिर से एक नए रिश्ते को पैदा किया। मेरा परिवार भी कैसे ज़िद पर अड़ा था ना कि एक तलाक़शुदा व्यक्ति के साथ नहीं जाना है…पर देखो ना…आज 17 साल हो गए हैं हमें साथ रहते हुए, पर आज भी मन की भूख एक दूसरे से ही शांत होती है।निखिल की स्थिति थोड़ी जुदा थी तुमसे, पर दर्द कुछ कुछ वैसा ही था, जिससे तुम गुज़रे थे।
क्या सोचा है अब? क्या करना है? – हम निखिल से पूछ रहे थे और वो चुपचाप बैठा हुआ था। थोड़ी देर बाद ख़ामोशी को तोड़ते हुए निखिल ने कहा कि मुझमें हिम्मत नहीं। मैं कायर हूं शायद। नहीं चला सकता किसी भी एक रिश्ते को पूरी तरह। अब इसी अधूरेपन के साथ रहूंगा ज़िंदगी भर। पहले लगता था कि किसी के साथ भी जाकर अपने आप को शारिरिक रुप से शेयर करूंगा तो दर्द हल्का हो जाएगा, पर वक्त ने सीखा दिया है तन और मन का भेद। तन से आप कहीं भी जाएं, मन का सुख नहीं तो सब बेकार। मन की भूख मरनी ज़रुरी है। मेरे मन की भूख वहां से पूरी होती है, जहां मैं तन से नहीं जा पा रहा। ऐसा ही होना लिखा होगा मेरी किस्मत में। पता नहीं, कितने लोग होंगे मेरे जैसे…एक ही ज़िंदगी में इतनी उलझनें…गंदा तो बहुत है पर अब ऐसा ही है। मेरी बीवी अब पहले से ज़्यादा घ्यान देती है मुझ पर और वो चीज़ मेरे अंदर और गुस्सा पैदा करती है कि जब अब तक नहीं, तो अब फिर क्यों? मैं भी उसके सारे सच जानता हूं जो उसने पर्दे के पीछे छिपा रखा है, पर मुझे उसके होने या ना होने से कोई फर्क नहीं पड़ता इसलिए मेरी तरफ से शिकायत भी नहीं। क्या सिर्फ खोने का डर ही नहीं इसकी वजह? क्या साथ रहने के लिए ‘डर’ वजह काफी है? क्या बच्चे के नाम पर या समाज और परिवार के नाम पर रिश्तों को निभाना चाहिए? आखिर कोई तो बताए कि सही और ग़लत क्या है?
मैं निखिल की बातें सुनकर तुमको देख रही थी। सही ग़लत तो मुझे भी नहीं पता…पता है तो बस इतना कि तुमने हिम्मत दिखाई थी। एक रास्ता बनाया था सबके लिए। अलग होने के बाद भावना को भई असित के रुप में उसका जीवनसाथी मिला था। कितना मुश्किल होता है ना सब कुछ इतना आसान बनाना…पर तुमने हमेशा बनाया है…
पिताजी कहते हैं कि ज़िंदगी में कोई एक रिश्ता ऐसा गर है पास में, जिसके लिए पूरी दुनिया से लड़ना पड़े तो लड़ जाना चाहिए, क्योंकि सबके पास ऐसे रिश्ते होते ही नहीं हैं।
मेरे पास तुम थे…तुम्हारे पास मैं थी…मेरे पास तुम हो…तुम्हारे पास मैं हूं…