‘की एंड का’


‘चीनी कम’, ‘पा’, ‘शमिताभ’…अगर आपने ये फ़िल्में देखी हैं, तो इन कहानियों के पीछे जो मास्टर माइंड है, आप उसे जानते ही होंगे। जी हां, आर बाल्कि…जो दूर तक का सोच लेते हैं, या यूं कहूं कि काफी दूर तक का सोच लेते हैं। एक बार फिर से वो अपनी उसी दूर की सोच लेकर आ गए हैं फिल्म ‘की एंड का’ के रुप में। हाउस हस्बैंड का कॉन्सेप्ट बाल्कि ने introduce किया है। स्त्रीलिंग और पुल्लिंग को इतनी खूबसूरती के साथ शायद सिर्फ बाल्कि ही दिखा सकते थे, जो उन्होंने दिखाया है। लड़की और लड़का में से बाल्कि ने की एंड का लेकर एक बार फिर से खुद को भीड़ से अलग साबित किया है। हमने गृहलक्ष्मी, गृहस्थिन, हाउस वाइफ, ऐसे शब्द तो सुने हैं, पर इस बार बाल्कि ने सबको काम दे दिया है कि एक मर्द जब घर संभाले, तो उसके लिए क्या शब्द हो सकता है, ये ढ़ूंढ़ने का। भारतीय समाज में आर बाल्कि एक option के तौर पर लेकर आए हैं ‘की एंड का’ की कहानी को।
कहानी की बात करूं तो कहानी है किया यानि करीना कपूर और कबीर यानि अर्जुन कपूर की, जो फ्लाइट में मिलते हैं। किया हैं वर्किंग वुमन, जिसका सपना है कंपनी का सीईओ बनने का और कबीर है बड़े बिजमनेसमैन का बेटा,वैल एजुकेटेड है पर उसका सपना है अपनी मां की तरह घर संभालने का, एक हाउस हस्बैंड बनने का। धीरे धीरे दोनों में होता है प्यार और फिर फटाक से हो जाती है शादी भी। जिस तरह से एक मर्द औरत को मंगलसूत्र पहनाता है,उसी तरह से किया कबीर को मंगलसूत्र पहनाती है। कबीर शादी के बाद परफेक्ट हाउस हस्बैंड बन कर अपनी पत्नी और सास का पूरा ख़्याल रखता है। किया को भी कामयाबी मिलती है। किया कबीर की ज़िंदगी में सब कुछ अच्छा होता है, लेकिन एक टीवी इंटरव्यू के बाद कबीर किया से ज़्यादा फ़ेमस हो जाता है। किया को होती है कबीर की कामयाबी से जलन। इनका रिश्ता क्या मोड़ लेता है, इसके लिए थोड़े पैसे खर्च किजिए और फ़िल्म देखिए।
कहानी बहुत अच्छी है…अलग है। रोल रिवर्स वाले इस कॉन्सेप्ट को इससे पहले फ़िल्मों में नहीं देखा गया है। आर बाल्कि ने दूर की एक सोच को यहां दिखाने की कोशिश की है। फ़िल्म देखकर समझ में आता है कि लड़की और लड़के के प्यार और रिश्ते के बीच में पैसे की भी बहुत बड़ी भूमिका होती है। घर में पैसे कमानेवाले और उस पर निर्भर रहने वाले लोगों के बीच एक नाज़ुक रिश्ता होता है और उसमें होती है एक कड़वी सच्चाई, जो इस फ़िल्म से उजागर होती है। बीच में हो सकता है कि आपको फ़िल्म ‘अभिमान’ की याद आ जाए…

एक्टिंग की बात करूं तो अर्जुन और करीना को छोड़कर किसी के लिए बहुत ज्यादा स्कोप नहीं था। अर्जुन को आप मोटा कहिए या कुछ और…वो अपने रोल में जमे हैं। शायद उनके लिए ये रोल मुश्किल भी रहा हो, पर उन्होंने अच्छे से इसे निभाया है। ऐसा लगता है कि लड़कियां इस फ़िल्म के बाद उनकी दीवानी होने वाली हैं। करीना ने भी काम अच्छा किया है। उनकी अदाएं, उनके इमोशंस काफी अच्छे लगे हैं। स्वरुप संपत और राजित कपूर का रोल कम था, पर उतने में भी दोनों ने अच्छा काम किया। ट्रीट तब मिलती है जब अमिताभ और जया एक कैमियो रोल के लिए फ़िल्म में दिखते हैं और उस सीन को खूबसूरत बना जाते हैं। मुझे लगता है कि बाल्कि हैं अमिताभ के सुपर फैन और वो बिग बी को किसी ना किसी रुप में अपनी फ़िल्म में ले ही आते हैं।

डायरेक्शन भी अच्छा है। स्क्रिप्ट पर थोड़ी और मेहनत की जा सकती थी पर उसके बावजूद बाल्कि ने काम बहुत अच्छा किया है। जय हो पी सी श्रीराम के सिनेमेटोग्राफी की, जिसने लोकेशंस के लिमिटेड होने के बावजूद फिल्म में खूबसूरती बनाए रखी। लोकेशंस ही क्यों…कैरेक्टर्स भी फ़िल्म में ज़्यादा नहीं है, पर वही बात है, बाल्कि इसीलिए तो बाल्कि हैं ना। फर्स्ट हाफ थोड़ा स्लो है, पर फिर भी बाल्कि ने ऐसा किया है कि आप कहानी से खुद को जोड़े ही रखते हैं। अमिताभ और जया को लाकर बाल्कि ने जो मैसेज देने की कोशिश की है, वो साफ समझ में आती है। जया बच्चन का अमिताभ को ये कहना कि सोचो तुम किचन में काम करते और मैं अपने फैंस को दर्शन देती…सोचने पर मजबूर करता है। म्यूज़िक कुछ ख़ास नहीं फ़िल्म का। हां, हनी सिंह का गाना ‘हाई हील’ पहले से ही हिट है। इसके अलावा ‘जी हुज़ुरी’ वाला गाना टुकड़ों में आता है, और कहानी के अनुसार आता है, जो बहुत अच्छा लगता है। बोल भी अच्छे हैं इस गाने के, म्यूज़िक भी और गाने में आवाज़ भी..and of course, credit goes to Mithun.
अब सवाल कि क्यों देखें, तो फ़िल्म के अंत में करीना की मां का एक डायलॉग है – ‘यह लड़की और लड़के की लड़ाई नहीं, कमाने वाले और घर संभालने वाले की लड़ाई है। जो कमाता है, बाहर जाता है, वह लोगों के बीच लोकप्रिय है। उससे जरा भी ध्यान हटा तो उस का अहं जाग जाता है।’ – तो अगर आप इस कॉन्सेप्ट को आर बाल्कि के खूबसूरत अंदाज़ में देखना चाहते हैं, अगर आप अर्जून को एक हाउस हस्बेंड के रोल में देखना चाहते हैं, अगर आपको करीना पसंद हैं, अगर बाल्कि के कॉन्सेप्ट्स आपको पसंद हैं तो एक नए कॉन्सेप्ट के लिए ये फ़िल्म देखिए। स्क्रिप्टिंग थोड़ी कमज़ोर है और डायलॉग्स भी बहुत अमेज़िंग नहीं हैं, तो फ़िल्म ना देखने के लिए यही वजह हो सकती है। एक बात और, बच्चों को घर छोड़कर जाइए, नहीं तो समझा नहीं पाएंगे कि ये ‘चड्डी चेक’ क्या होता है। इस फ़िल्म को मिलते हैं 3 स्टार्स।

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