कुछ यूं ही…


सुनो ना,

बड़ी बच बच चलती हूं आजकल

सुना है ज़िरह में उलझती है ज़िंदगी

किसी वक्त के गिरे लम्हें में

लिपट ना जाऊं ताउम्र के लिए

धूप में है जलने का डर

छांव चाहिए सुकून के लिए

 

प्रिये,

सदियों तक भी राहत नहीं मिलती

जला दो खुद को धूप की तपिश में

जल कर ही होता है नया जन्म

फुटपाथ पर नंगे पांव चलते हुए

अक्सर मायने समझ आते हैं ज़िंदगी के

 

क्या धूप में मिलती है छांव?

ये भटकाव जाता क्यों नहीं?

वक्त कभी आता जाता नहीं दिखा

भला ये कौन सा साया और कब आया?

आहट नहीं सुनी है कभी,

हां, हमेशा देखी है परछाई एक

क्या ये एक खुश्बू है,

जो समा गई है रुह के अंदर?

क्या अब मुझे भी तमाम उम्र

इसी सुगंध के साथ रहना है?

 

हां, इसी में होगी तलाश पूरी

भटकने पर ही गिरहें खुलेंगी

वक्त लगता है चांद निकलने में

पर वो निकलता ज़रुर है

खो दो खुद को पूरा तुम

यकीं करो, हो जाएगी खुद से मुलाक़ात

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