चारों तरफ़ हंगामा है, बहुत शोर है। ख़ुशी की लहर मानो पूरे देश में है। ओलम्पिक में मेरी बहुत रुचि हो, ईमानदारी से कहूँ तो ऐसा नहीं है। एक बार लाइव देखने का मौक़ा मिला था, जिसको मैंने इंजॉय किया था, पर टीवी के आगे मैं इसको देखने बैठूँ, ऐसा नहीं होता…पर बैड्मिंटन के सेमी फ़ाइनल मैच में ऐसा हुआ। जापान और इंडिया का वो रोचक मुक़ाबला मैंने देखा और मैं फ़िनाले का इंतज़ार करने लगी। स्पेन और भारत का मैच…घर में हम सब बैठ कर देख रहे थे। शायद कई घरों का यही हाल होगा। तीन सेट के इस मैच में पहला भारत से सिंधू ने जीता और बाकी के दो सेट स्पेन से मेरीन ने। मैच खत्म होने के बाद मेरीन खुशी से रो पड़ी तो सिंधू ने खुद को संभाला। उसने अपना और मेरीन का रैकेट लेकर जमा करवाया। मेरीन से जाकर हाथ मिलाया और दोनों गले मिलीं। मैं हैरान हो रही थी दोनों को देखकर। लग रहा था कि थोड़ी देर पहले तक ये दोनों एक दूसरे को मारने पर उतारू थीं, चाहे खेल में ही सही, पर अब इतनी आसानी से एक दूसरे से गले कैसे मिल रही हैं? दीदी के बेटे ने कहा कि मैच फिक्स था क्या मौसी? मैं हंस पड़ी उसके मासूम सवाल पर क्योंकि मैं समझ रही थी कि मेरी तरह वो भी उनके इस गले मिलने की कला को पचा नहीं पा रहा था। हॉस्टल में डांस और स्पोर्ट्स के बीच मैंने डांस चुना था, शायद इसलिए भी मैं इस ‘Sportsman spirit’ को समझने में असमर्थ रही।
मेरीन ने बहुत उम्दा खेला था और सिंधू ने उसे टक्कर भी अच्छी दी। कई लोग खुश होंगे कि भारत को एक और मेडल मिला…पहली भारतीय महिला, जो सिल्वर मेडल लेकर आ रही है…चलो, कुछ तो आया ही। कुछ लोग ऐसे भी होंगे जो इस क्षण भी सच्चे देशभक्त बनकर गाली दे रहे होंगे कि ज़रा सा और बेहतर खेलती तो गोल्ड ला सकती थी। वर्ल्ड की नंबर वन बैडमिंटन प्लेयर मेरीन को इस ओलंपिक में पहली बार सिंधू ने ही हराया, इस बात से भी शायद कई लोगों को कोई फर्क ना पड़ता हो। सरकार भी पैसे और नौकरी का ऑफर देकर अपनी महानता सिद्ध करेगी। फेसबुक पर महिलाओं को लेकर एक क्रांति भी आ गई कि हर क्षेत्र में तो महिलाएं ही आगे हैं, पुरुष वर्ग कहां है? पुरुष वर्ग शायद ये सोच कर खुश हो रहा होगा कि जितनी भी महिलाएं जीत रही हैं, इन सबका कोच तो पुरुष ही है ना। शोभा डे को भी जीवन का सबसे बड़ा ज्ञान और सबसे ज़्यादा नसीहत मिल चुकी होगी। यह सब कुछ अच्छा है गर ये ऐसा ही बना रहे। मुझे डर लगता है जिस तरह हम चीज़ों को लेकर रिएक्ट करते हैं। पल में सर चढ़ाने और पल में उतारने या उसे भूल जाने में हमें महारत हासिल है। हम नहीं समझते उस दिल को, उस भाव को जो हार-जीत से परे गले मिलता है। सोच रही हूं कि जिन कपड़ों में सिंधू ने जीत कर देश की इज़्ज़त बढ़ाई, उन कपड़ों में अपने ही देश में वो इज़्ज़त गंवा सकती है।
सही बात कही किसी ने कि भारत देश में वो अल्ट्रासाउंड में अपनी पहचान से बच गई इसलिए देश की इज़्ज़त भी बच गई। बेटी बचाओ, इज़्ज़त बढ़ाओ जैसी तमाम बातें हैं जो छाई हैं। कब तक असरदार हैं या दिमाग में हैं, नहीं पता… और ये जो मुझे नहीं पता है ना, वो ही परेशान कर रहा है।
वक़्त वक़्त पर औरतें बताती हैं कि वो क्या हैं और क्या कर सकती हैं, फिर भी समाज की याद्दाश्त इतनी कमजोर कैसे होती है कि वो सब भूल जाता है? उसे ये मेडल, ये खुशी की लहर, ये मेहनत, तोहफे में देश को मिला ये गर्व याद क्यों नहीं रहता? एक औरत को सोचते वक़्त क्यों उसे सिर्फ उसके उभार दिखाई देते हैं? क्यों समाज एक औरत को बिस्तर और रसोई से बाहर नहीं देखना चाहता?
सब कहते हैं कि समय बदलेगा। मैं भी इसी इंतज़ार में हूं कि समय बदले और मुझे ये सब समझ में आ जाए। चलिए, फिलहाल तो दिमाग को शांत कर मैं सिंधू द्वारा दी गई इस अनमोल खुशी को सेलिब्रेट करूं….आप भी कर रहे हैं ना???
Behtareen likha😊
sahi baat kahi 🙂
Wonderfully written. Best wishes always from Banasthali 🙂