मैं हमेशा रहूंगी…


कुछ अजीब सी कशिश थी उस चाँद में कि मैं अपनी निगाहें ना फेर पाई। घर से निकलते ही उस पर नज़रें गड़ीं और बस वही जमी रह गईं। मैं अक्सर चाँद को देखती थी और तुम अक्सर मेरा मज़ाक़ बनाते थे कि देखने से वो उतर कर नीचे जमीं पे नहीं आ जाएगा। मैं अपने जवाब में बस तुम्हें देख कर मुस्कुराती। कितना हँसते थे ना तुम अपनी इन समझदारियों पर। मौसम ने करवट ली और हम दोनों की क़िस्मत में जुदाई आई। तुम्हारी समझदारी गुम हो चुकी थी। बिछोह की मार ने सबसे ज़्यादा तकलीफ़ तुम्हें दी थी। अब तुम अक्सर चाँद देखते…शायद उस चाँद में मेरी नज़रों को ढूँढते थे। मैं ख़ुद से ज़्यादा तुम्हारी परेशानी से परेशान थी। मैं जानती थी कि कभी दूर होने का समय आया तो मैं ख़ुद को संभाल लूँगी….पर तुम? तुम कैसे रह पाओगे या ख़ुद को संभाल पाओगे? तुम चुप से हो गए थे और तुम्हारी इस चुप्पी में मेरा मन जलता ही जा रहा था। 

हर फूल हर गमले में नहीं खिलता पर यह क़ाबिलियत तुम में थी कि तुम चुन चुन कर उस फूल को लेकर आते थे जो मेरे गमले में खिल सके। हाँ, हो सकता है कि प्यार मेरे भाग्य में रहा होगा पर वो ख़ूबसूरत दुनिया जो तुम्हारे आने के बाद मुझे मिली, वो भला और कहाँ मिलती मुझे? सबसे छुपा और बचा के रखने का वादा तुमने हमेशा निभाया। तुम्हारे साथ मैं कुछ अलग ही रहती…

तुम रह नहीं पाए और छुट्टी लेकर आ ही गए मेरे पास। ऑफ़िस के गार्ड ने आकर ‘कोई मिलने आया है’ का संदेश दिया। मैं बाहर गई तो बेताबी में तुमको चहलक़दमी करते देखा। तुम्हारी उस बेचैनी ने मेरे चेहरे पे एक शर्मीली सी मुस्कुराहट दी। ड्राइवर को हमने कार लेकर घर जाने के लिए कहा और ख़ुद टैक्सी ली। पूरे रास्ते तुमने मेरा हाथ थामे रखा। पहली बार हम अलग हुए थे और उसकी तपिश मैंने तुम्हारी हथेलियों की गर्माहट में महसूस कर ली थी। बिना कुछ बोले सब सुनने का वो सफर शायद हम दोनों कभी ना भूल पाएं। 

‘फिर से चांद को देख रही हो?’- तुमने खुली छत पर मुझे देखते हुए अपना चिरपरिचित सा सवाल दागा। मैं भी हमेशा की तरह हंसी। ‘वैसे पता है, पहली बार मुझे भी इस चांद की कीमत पता चली है। इन दूरियों में इसे ही देखकर नज़दीकियों का एहसास पाया है मैंने। तुम्हें नहीं मालूम, पर इस चांद में तुम्हारी आँखें दिखती हैं मुझे। सुनो, क्या मैं अपने सारे किए हुए वादे निभाता हूं? जिन खुशियों की तुम हकदार हो, क्या वो सब तुम्हारे हिस्से आ पाई? क्या अभी भी तुम्हें लगता है कि ‘वो’ मैं ही हूं, जिसे पाने की ख़्वाहिश तुमने हमेशा से की थी?’ तुमने मेरा हाथ पकड़ कर सब कुछ कह दिया था। मैं हैरान होने के साथ एक अलग ही भाव लिए बैठी थी। समझ नहीं आया कि ये तुम्हारा डर था, जिसे इन कुछ दिनों की दूरियों ने पैदा किया था, या ये किसी नई जिम्मेदारी का एहसास था? 

मैं तुमको एकटक देखी जा रही थी। जानती थी कि अब तुम्हें सब समझ आ गया है। हर रात चाँद के इस बढ़ते घटते कतरन को देखना अब तुम्हें भी भाता था। तुम अक्सर मुझे अपनी ज़िन्दगी की ठौर कहते और मैं बस इतराया करती। एक मर्द जब अपनी औरत को लेकर संजीदा हो तो ज़माना अक्सर उसे हजम नहीं कर पता पर मेरी ज़िंदगी के लिए यह बात गर्व करने जैसी थी। 

धीरे धीरे गिरहें खुलती हैं, ये बात हम दोनों ही समझ रहे थे। अक्सर ऐसा होता है कि हम जिस जहाँ को ढूँढते हैं, वो हमें नहीं मिलता पर जब मिल जाए तो उससे हसीन तोहफ़ा और कुछ नहीं होता। मैं ख़ुश थी और मुझसे ज़्यादा तुम… हर चीज अपना असर दिखाने में एक उम्र लगाती है, पर कुछ चीज़ें बस यूं ही हो जाती हैं। 

तुम हमेशा डरते थे मुझे खोने से। ऐसा नहीं कि तुम्हें तुम्हारी हथेलियों की पकड़ पर भरोसा नहीं था पर शायद इस बात का एहसास ज़रुर था कि कई बार हर मजबूती के बाद भी हाथ और साथ छूट जाते हैं। दिन और रात जलते बुझते रहते थे और उसी के साथ तुम्हारा दिल भी। तुम्हें डर था कि एक दिन आँधी चलेगी और सब उड़ा ले जाएगी। मैं तुम्हें विश्वास दिलाने में लगी ही रहती। मैंने कई दफे कहा भी कि मैं अपनी पूरी ज़िंदगी सिर्फ तुम पर खर्च करने वाली हूं, पर तुम हड़बड़ाते रहे। शायद तुमने अपनी ज़िंदगी में बहुत कुछ खोया था, इसलिए ये डर अंदर तक बैठ गया था, जो बाहर आने का नाम नहीं ले रहा था। 

हर रोज़ दबे पांव चांद निकलता और अपने व्यवहार से पलट तुम्हारी व्याकुलता को कम कर जाता। बेचैनी में डूबा गीला वो मन अब चांद की छांव में सूखने लगा था। तुम उदास थे, ऐसा नहीं था…पर हां, चुप ज़रुर थे। खोने का डर पाने के सुख को रोकता था। मेरे पास कोई ऐसी तरकीब नहीं थी, जो तुम्हें शांत करे। हां, ये ज़रुर हुआ कि मैं ख़ामोशी के साथ एक रिश्ता बुनने लगी…तुम्हारे साथ… जिसको तुम कभी भी ओढ़ सकते थे। ज़िंदगी इन्हीं सायों के बीच गुज़र रही है। मैं भी गिरती पड़ती संभाल रही हूं सब…संभल भी रही हूं… 

याद रखना, गर कभी ना रहूं तो हमारे रिश्ते को ओढ़ लेना या उस चांद को देख लेना…मैं उसमें ही कहीं समाई मिलूंगी…

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