2-4 दिन पहले ‘पिंक’ फ़िल्म देखी। बहुत अच्छी लगी। इसलिए नहीं कि एक महिला हूँ या मैंने कोई महिला मुक्ति मोर्चा खोल रखा है, बल्कि इसलिए कि इसमें कुछ बिंदु ज़िंदगी से जुड़े ऐसे मिल गए, जो मैं या मुझ जैसे कई लोग ख़ुद से जोड़ कर देख सकते हैं। अक्सर ऐसा होता है कि जब हम कोई फ़िल्म देखते हैं तो उसके किसी किरदार में या किसी परिस्थिति में ख़ुद को देख ही लेते हैं। मुझे यक़ीन है कि आप भी इससे बच नहीं पाए होंगे। मैं भी नहीं बच पाती (कुछेक फ़िल्मों को छोड़ दिया जाए तो)
कितनी ‘थ्योरी’ बनी हुई है ना एक लड़की को लेकर। सबसे आसान थ्योरी तो ये कि कभी किसी लड़की को हराना हो तो उसके किरदार पर ऊँगली उठा दो। हाँ हाँ, यक़ीन कीजिए, किसी महिला को हराने का इससे आसान तरीक़ा आपको कुछ और नहीं मिल सकता है। यक़ीन तो इस बात पर भी कीजिए कि कई बार ये काम कोई लड़की ही किसी लड़की के लिए कर देती है।
मुझे याद आती है वो शाम, जब तुमने कहा था कि मुझे अपनी ‘बॉडी लैंग्वेज’ पर ध्यान देना चाहिए। मेरे पूछने पर कि क्या किया मैंने, तुम उखड़ से गए थे। मेरा लोगों से हंस कर बात करना तुम्हें नहीं भाता था। मैं समझ नहीं पाती थी कि आखिर इसमें ग़लत क्या है? मैं कहती भी थी कि मैं ऐसी ही हूं, पर तुम्हारे अनुसार लोग मेरी हंसी की वजह से मुझे अलग तरीके से लेते थे। वो एक तरीके से ‘इन्विटेशन’ होता था। मैं इसे नहीं समझ पाई। सुनो, तुम भी तो बहुत हंस कर बात करते थे सबसे, क्या तुमने कभी ऐसे किसी को इन्वाईट किया था?
हां, याद है मुझे। महिमा के बीमार होने पर उसके पापा फ्लैट में मिलने आए थे। अगले ही दिन पड़ोस में रहने वाले सागर ने पूछ ही लिया था कि कल वो एक आदमी आया था ना। दोस्त था क्या तुम्हारा? तुम्हें क्यों जानना है कि किसी के घर कोई आया, तो उससे उसका क्या रिश्ता है? क्या अकेली लड़की के पास आने वाला मर्द सिर्फ उसका दोस्त, या यूं कहूं कि ‘ब्वॉय फ्रैंड’ ही हो सकता है? जब तुम्हारे पास पापा, चाचा, मामा के रिश्ते हैं, तो किसी लड़की के क्यूं नहीं हो सकते? और अगर मान भी लिया जाए कि ब्वॉय फ्रैंड ही आया है, तो तुम्हारी नींद इस बात से क्यों हराम होती है? ऐसी क्या ख़्वाहिश दबाए बैठे हो, जिसको सोच कर लगता है कि किसी दूसरे की वो पूरी हो जाएगी?
पिताजी कहते हैं कि समाज और परिवार के साथ रिदम बैठा कर चलना चाहिए, पर आज के हालात देखकर लगता है कि खुद का खुद की ज़िंदगी के साथ तालमेल बैठ जाए, वही काफी है। लोग ‘जजमेंटल’ होते हैं। हर चीज़ को जज करते हैं। हंस कर बात करने का मतलब ‘इन्वाइट’ करना होता है, साथ बैठ कर ‘पी’ लिया तो उसके बाद तो सिर्फ बिस्तर के ही सपने आएंगे। अपने घर खाने पर बुला लिया तो मतलब आपकी ज़िंदगी पर आने वाले का कॉपी राइट हो गया।
हां, मैं जानती हूं कि बहुत सारे लोग ऐसे नहीं हैं, पर मैं ये भी जानती हूं कि बहुत सारे लोगों में बहुत सारा हिस्सा ऐसा ही है। हर कोई अपनी ज़िंदगी में एक ‘कहानी’ चाहता है। चुंकि खुद की ज़िंदगी की कहानी से डर लगता है इसलिए दूसरों की ज़िंदगी को ही एक कहानी का रुप देते हैं और उसको इंजॉय करते हैं। वैल, कुछ तो ‘टेस्टी’ सा हासिल होता ही होगा। बता नहीं सकती मैं…
स्तुति के ब्वॉय फ्रैंड ने उसको इसलिए छोड़ा कि उसने शादी से पहले अपने आप को नहीं सौंपा, तो मिहिर ने अदिति को ये कह कर छोड़ दिया कि जो शादी से पहले खुद को इस तरह सौंप सकती है, उसने ना जाने किस किस को खुद को सौंपा होगा। क्या चाहते हो तुम? चाहते क्या हो? सिर्फ अपनी आसान सी ज़िंदगी, जो जब जिस रुप में जहां चाहो, वहां वैसे ही वो मिल जाए? क्या चाहते क्या हो?
अगर आशिमा अकेली है, तो वो क्यों किसी के साथ बाहर नहीं जा सकती या शहर से बाहर घूमने का प्लान नहीं कर सकती? क्यों उसे इस नज़र से देखा जाना चाहिए कि गर वो किसी लड़के दोस्त के साथ छुट्टियां मना कर आई है, तो हमबिस्तर हो कर आई ही होगी? पर क्या करें ना, वो कहते हैं ना-‘मन का क्या है, वो तो कहीं भी उड़ कर जा सकता है’। तो बस…. तुम्हारा ये मन काबू में आता कहां है भला? चीज़ों को गढ़ने में, गढ़ कर उन्हें सोचने में, सोच कर उसको 2-4 लोगों से कह देने में जो मज़ा है, भला वो तुम्हें कहीं और कहां मिलेगा? है ना?
तुम सुन रहे हो ना, तुम… और तुम भी….और जो तुम चश्मे के नीचे से अपनी कटिल मुस्कान के साथ मुझे देख रहे हो, तुम भी… तुम सब से पूछ रही हूं… चाहते क्या हो? बिस्तर के बाहर कोई चीज़ कभी दिखाई देती है या समझ में आती है? मॉल में अपनी बीवी के साथ हाथ थामे चलते हो और दूसरे जोड़े को देखकर पहेली बुझाने लगते हो कि उन दोनों के बीच क्या रिश्ता है या वो लोग क्या और कैसे रहते होंगे? तुम अपने दोस्तों से दोस्ती का रिश्ता मरते दम तक निभा सकते हो पर मुझसे ये उम्मीद कि अब जब तुम्हारे साथ हूं तो बाकी सब भूल जाऊं। यकीं करना तुम्हें कभी नहीं सीखा।
सारी ज़िंदगी तो इसी सरदर्दी में बीत जाती है कि लोग क्या कहेंगे? अरे! तुम पागल हो क्या? तुम अभी भी नहीं समझ रही, तुम चाहे ‘ये’ करो या ‘वो’, लोग वही कहेंगे, जो कहने में उन्हें ‘कहानी’ मिलेगी, जिसे दूसरों को बांच कर उन्हें कालिदास होने का सुख प्राप्त होगा। वो तुम पर हाथ आज़माना चाहते हैं और जब खुद नहीं आज़मा पाते, तो दूसरों पर यह तीर चला देते हैं। निकल आओ इस तकलीफ से। यकीं करो, ये तीर लगने पर नहीं चुभता, जितना सोचने पर….
‘पिंक’ अच्छी फ़िल्म है। नहीं देखी तो देखना ज़रुर। इस फ़िल्म के ज़रिए एक कोशिश तो की गई है, उस मनगढ़त हिप्पोक्रेसी को तोड़ने की, जो अपनी सुविधा के लिए तुम सब ने मिल कर बना ली है। जाओ, तुम भी जाओ और देखो इसे। जानती हूं कि देखते वक्त यही सोचोगे कि तुम भी इसी तरह तो सोचते हो। शर्म आए तो पास बैठी किसी महिला के पिंक दुपट्टे में अपना मुंह छिपा लेना। हो सकता है कि सदियों से जमी तुम्हारी सोच ज़रा सा ही सही, पिघल सके।
जानती हूं कि आज अपनी सोच इस तरह बेलिबास तुम्हारे सामने रखी है तो फिर जज करोगे, कुछ कहोगे, कुछ चुभाओगे….पर अब चुप्पी नहीं भाती मुझे। मैं तुम्हारी उस तमाम सोच को ‘नो’ कहती हूं, जिसने अब तक मुझे जकड़ कर रखा था। याद रखना, मेरी ‘नो’ का मतलब ‘नो’ (नहीं) ही है, इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं।
जानती हूं कि ‘पिंक’ कलर एक निशानी है एक लड़की की। माना जाता है कि लड़की है तो उसका सब ‘पिंक’ होगा और लड़का है तो ‘ब्लू’। ब्लू रंग गहरा होता है जो आसानी से किसी भी रंग को दबा सकता है, पर याद रखना, तुम्हारा ये रंग या तुम्हारी ये सोच मुझे कभी डरा नहीं सकती। ‘पिंक’ रंग देखते ही तुम्हारी ऑंखों में जो रंग उतरता है ना, मुझे वो कतई बर्दाश्त नहीं।
‘पिंक’ रंग सॉफ्ट तो हो सकता है, पर वो कच्चा या कमज़ोर नहीं है…
बेहद संजीदगी से लिखा गया सत्य !!! बहूत ख़ूब समझती हो रिश्तों को और उनके दर्द को!!! हर बात से सहमत हू !!!
Bhout hi bindaas tareeke se. Aapne ek sach rakha di… Yeh har ladki k man ki baat hai..aur bas isko kah bhar pane me poori zindgi beet jaati hai..ek sawal uth khada hota hai jub bhi aise vichar sunti hu ki gar hum sab isi tarah jeena seekh le to kya pariwar bach payenge…kai baar bas pariwar ki gaadi ko chaane k liye bhout sare NO yes me badal jate hain…aisa kyu…
Kyunki hum darte hain. Pariwar me agar 2 log hain to usko chalane ki zimmedari bhi dono ki hi hai. Ladki darti hai par usko samajhna hoga ki ‘PINK’ rang darne ka rang nahi hai😊
Beautifully written Shweta.
Sahi shabdon me samaj pe kada prahar. Man jeet liya aapne
Superb writing shweta. Always follow you. U r amazing writer. Enough is enough and your this writing shows this thought perfectly. Pink is actually a very good movie so ur writing is. U r breaking that hippocracy. Keep it up dear
Pink is a relevant film. Ur writing is also relevant. Found a good writer after a long time. Single working women not a catch and you said this very beautifully. I must say, you are bold and beautiful. Keep this spirit high.
Itni khubsoorat smile ke sath to tumne sari kadwahat pi li hogi or pahle se zyada strong ho gai hogi. God bless u. Yeh sab likhne ke liye himmat chahiye
PINK movie hits the nail in the wall, as if it heard what we women feel by heart and narrated those feelings. your write up hits that nail even deeper in the wall so that even if it comes out, it will leave its deep mark there ..i am so in love with your writing..let your thoughts flow…
That’s why I like u itne sunder aur damdar tarike se apni baat kah deti hai
That’s why I like u itne sunder aur damdar tarike se apni baat kah deti hai. Aise hi likhti rah kar. Intezar rahta hai
the best of yurs till now…. i loved it… very well written
बहुत सही !सहज अभिव्यक्ति !!अपने विचारों में स्पष्टता और अपने प्रति आस्था,समाज की सडी गली स्थितियों को दर किनार करने मे सहायता करती है ।तुम्हारी अभिव्यक्ति कही दिल को छूती है।ईश्वर तुम्हारी कलम मे रंग भरे,शव्दो को ताकत नवाजे सस्नेह😊😊😊😊😊
Very true….कोमलता और सौमयता को कभी कम नहीं आंकना चाहिए…..