ऐसे ही बस…


तकल्लुफ़ छोड़ ना अब
लुका छिपी का खेल कब तक?
चल अब चेहरा दिखा
करते हैं आमना सामना
तू नाप ले मुझे अपनी नज़रों से
मैं भी तौलूँ तुझे ज़रा
चल ना,
कभी तो हाथ थामे हम
कभी सर टिका दें कंधे पे
सबने किया है तेरा ज़िक्र
मुझसे भला कैसी झिझक
सिर्फ़ ख़्वाहिशों में ही हासिल क्या तू?
हक़ीक़त में भी तो दीदार करा
सब कहते तू है बड़ी हसीन
कहीं इसका तो ग़ुरूर नहीं
मिल तो सही,
अपनाने का फ़ैसला उसके बाद
चल आ अब,
कुछ नहीं तो नाम जान ले मेरा
मुझे तो शायद पता है तेरा नाम
सब अक्सर तुझे ‘ज़िंदगी’ कहते हैं

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3 thoughts on “ऐसे ही बस…

  1. कविता अच्छी है गर कल्पना तक महदूद हो। वास्तविकता की बु पीराती है । वैसे भी कोई कह गया—–
    जिन्दगी गम ही सही गाती तो है
    दुनिया धोका सही भाती तो है
    मौत के आगे भला हाथ क्यों जोडें हम
    निंद थम थम के सही आती तो है ।

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